समय बीतता गया...
समय की आँधी क्रान्तियात्रा-सी
धुन्धले पड़ते
प्रतीक्षा और मृत्यु के सीमान्त
लड़खड़ाता साहस, विश्वास
ऐसे में स्नेह को आँधी में
दोनों हाथों से लुटा कर
कुछ मिलता है क्या
आत्मपीड़न के सिवा ?
अकेलापन
कसैलापन रसता
बचा रह जाता है
बीतती मुस्कान ओंठों पर
खाली बोतलों के पास
टूटे हुए गिलास-सी पड़ी ...
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-- विजय निकोर
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
//बहुत सुंदर, सजीव सा चित्रण//
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय जितेन्द्र जी।
और आँख झपकती नहीं .. डूबती जाती है.. शिथिल पड़ते अंग लसरते चले जाते हैं.. फिर न उठने केलिए.. .
जिस भावदशा को आपने शब्दबद्ध किया है आदरणीय, वह तमस के उस स्वरूप को साझा करता है, जिसे मनोहारी भी कह सकते हैं. नैराश्य भी सुन्दर होता है, आदरणीय.. !.. . है न ?
इस रचना पर आपकी उपस्थिति के लिए और सराहना के लिए आपका आभारी हूँ, आदरणीया सविता जी।
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय शिज्जु शकूर जी।
आदरनीय बड़े भाई विजय जी , जीवन की निराशाओं को आपने जो शब्द दिये हैं वो क़ाबिले तारीफ है । बहुत मार्मिक ! आपको दिली बधाइयाँ ।
पुरानी यादें और अकेले पन के दर्द की जीती जागती तस्वीर आपकी ये रचना ,बहुत खूब ,बधाई आपको आ० विजय निकोर जी |
निराशा को क्या खूब शब्द मिले हैं। कम शब्दों में यथार्थ बयाँ किया है आपने आदरणीय।
//अकेलापन
कसैलापन रसता
बचा रह जाता है
बीतती मुस्कान ओंठों पर
खाली बोतलों के पास
टूटे हुए गिलास-सी पड़ी ...//...क्या बात है! बहुत सुंदर।
हार्दिक बधाई आपको इस सफ़ल रचना के लिए।
सादर
बेहद मार्मिक रचना
इतना प्रेम और वो भी इस तरहा ....लगता है किसी से शिकायत है और वही शब्दों से इस रचना में उतर आई है
बहुत खुबसूरत और दिल छु लेने वाली रचना है आदरणीय विजय सर ....आपकी सोच और लेखन को नमन .....
आदरनी निकोर जी/ आपकी दर्दीली रचना पर मेरी एक कविता समर्पित है / आत्मपीडा में अनुभूति सुख की लिए
दग्ध होता रहा अनुभवों में सदा
सत्य ही उस करुण के ह्रदय कोश में
पल रहा कोई जीवंत अनुराग है i
सादर i
आदरणीय विजय जी इस ह्रदयस्पर्शी रचना के लिए हार्दिक बधाई। सरल शब्द संयोजन एवं सुंदर प्रवाह इसकी विशेषता है।
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