२१२२ १२१२ २२/११ २
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देख तेरा जो हाल है प्यारे
ज़िन्दगी का सवाल है प्यारे.
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लोग मुर्दा पड़े हैं बस्ती में,
बस तुझी में उबाल है प्यारे.
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आम कहता है ख़ुद को जो इंसाँ,
उसकी रंगत तो लाल है प्यारे.
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उसकी थाली में मुझ से ज़्यादा घी,
बस यही इक मलाल है प्यारे.
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हम ने अपना लहू भी वार दिया,
सबको लगता गुलाल है प्यारे.
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ख़ाक ही ख़ाक बस उड़ेगी अब,
ये हवाओं की चाल है प्यारे.
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अब तो उम्मीद भी है नाउम्मीद,
क्या ही अच्छा ये साल है प्यारे.
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कैसे करवाए वो रफ़ू पैबंद,
पैरहन जिसका, ख़ाल है प्यारे.
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हो गए रोंगटे खड़े तेरे,
ये ग़ज़ल का कमाल है प्यारे.
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निलेश "नूर"
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
सभी अशआर सुन्दर हुए हैं आ० नीलेश जी
हार्दिक बधाई
वाह! बहुत बढ़िया गजल कही है आपने. वर्तमान में बिलकुल फिट बैठते शेर हुए
उसकी थाली में मुझ से ज़्यादा घी,
बस यही इक मलाल है प्यारे.............बहुत खूब, आजकल यही सोच सबसे बड़े दुःख का कारण है , दिली बधाई आपको आदरणीय निलेश जी.
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शुक्रिया शिज्जू जी ...
मै ग़ज़ल कहूँ इतनी कहाँ सलाहियत मुझमे ..
गजल ही कभी कभी मुझे कह लेती है :)
//लोग मुर्दा पड़े हैं बस्ती में,
बस तुझी में उबाल है प्यारे//.आदरणीय निलेश भाई ये शेर आप पर खूब लागू होता है :-)
बहुत खूब निलेश भाई बेहतरीन गज़ल है लाजवाब बहुत बहुत बधाई
शुक्रिया डॉ गोपाल नारायण जी
शुक्रिया नरेंद्र सिंह जी
शुक्रिया सुशिल जी
कैसे करवाए वो रफ़ू पैबंद,
पैरहन जिसका, ख़ाल है प्यारे.…… वाआआआआआआअह बहुत सुंदर अशआर है ....... हार्दिक बधाई
उसकी थाली में मुझसे ज्यादा घी -- और कमाल का मक्ता i मुबारक हो i
शुक्रिया आदरणीय
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