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"अंकल, इस बार सामान के बिल में सौ-दो सौ रूपये जरा बढाकर लिख देना, आगे मैं समझ लूँगा"  रोहन ने दुकानदार से कहा.

"ऐसा ?.. पर बेटा, यह तो तुम्हारे घर की ही लिस्ट है न ?" दुकानदार को बहुत आश्चर्य हुआ.

"हाँ है तो. पर क्या है कि पापा आजकल पॉकेटमनी देने में बहुत आना-कानी करने लगे हैं.. " रोहन ने अपनी परेशानी बतायी.

(संशोधित)

जितेन्द्र ' गीत '

( मौलिक व् अप्रकाशित )

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Comment by Akhilesh Dubey on December 11, 2013 at 10:57am

aadarniya jeetendra ji,

aaj ke parivesh ko is laghu katha ke madhyam se apne bahut umda dhang se bataya hai,

hradaya se dhanyawad.

Comment by Ravi Prabhakar on December 9, 2013 at 7:09pm

आदरणीय योगराज जी द्वारा की गई टिप्‍पणी लघुकथाकरों के लिए एक मानद्ंड (Benchmark) है जिसके लिए मैं प्रधान सम्‍पादक महोदय जी का दिल से शुक्रगुजार हूं, और उम्‍मीद करता हूं कि मंच को आपका मार्गदर्शन सदैव मिलता रहेगा

Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 9, 2013 at 2:00pm

आदरणीय जीतेन्द्र जी ..मुझे लघु कथा के बिषय में बहुत कुछ नहीं आता है ..लेकिन आपके इस प्रयास पर आदरणीय योगराज सर की प्रतिक्रिया से पहली बार थोड़ी जानकारी मिली ..इन बिन्दुओं का ध्यान रखकर आप  अगली रचना लिखिए ..आपकी अगले कृति के इंतज़ार के साथ ..सादर 

Comment by Meena Pathak on December 9, 2013 at 1:46pm

सुन्दर प्रयास हेतु बधाई स्वीकारें आ० जितेन्द्र जी 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on December 9, 2013 at 1:39pm

आदरणीय योगराज जी, सर्वप्रथम आपकी विस्तृत एवम ईमानदार प्रतिक्रिया हेतु हृदय से आभार

इस लघुकथा में मैंने आज के युवा वर्ग जो अपने शौक फर्माने के लिए कुछ भी कर गुजरते है, उन पर ध्यान आकर्षित कराना चाहा है, किन्तु अपनी आतुरता  से  लघुकथा को मापदंडों पर खरा  नहीं उतार पाया,

यहाँ की क्षेत्रीय भाषा का उपयोग भी लघुकथा के पक्ष को कमजोर बना रहा है, जैसे मोबाइल बैलेन्स ही कहते है , टेरिफ को, और छोटा शहर होने के कारण एक ही दुकान पर, सारे सामान रखना दुकानदार की विकासशीलता  व् विवशता  है.

लघुकथा पर आपके बिन्दुओं को पूर्णत: ध्यान में रखकर मैं प्रयास करूँगा, आज आपकी व्यस्तता में से समय निकालकर आपने मुझे पूर्ण अनुग्रहित व् अपना स्नेही बनाया है

अंत में आपकी एक बात//आप चाहे तो अन्यथा ले सकते है// दुखी कर देतीहै, मैं भावुक हूँ , परन्तु  मैं यह मानता हूँ की डांट फटकार उसी की होती है जिससे ज्यादा स्नेह व् अपनापन हो,

सादर!


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 9, 2013 at 12:01pm

भाई जीतेन्द्र जी

आपकी लघुकथा के सन्दर्भ में दो तीन अहम् बातें इस मंच से साझा करना चाहूँगा। जब लेखक किसी घटना या किसी क्षण विशेष से प्रभावित हो उसको लघुकथा का रूप देने की सोच लेता है तो उसके बाद लघुकथा दरअसल तीन चरणों से गुज़रती है, पहला चरण है रचना का उद्देश्य। अर्थात लेखक कहना क्या चाहता है, क्या दिखाना चाहता है और क्यों. दूसरा चरण है रचना का खाका या उसकी आउटलाइनिंग; अर्थात लेखक इस स्टेज पर उस घटना या क्षण विशेष के आधार पर अपनी रचना का एक खाका खींचता है. तीसरे और आखरी चरण में लेखक उस ढाँचे के ऊपर एक सुन्दर लघुकथा का निर्माण करता है. यह तीसरा चरण सब से महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें ज़रूरी नहीं कि लेखक अक्षरश: वही लिखे जो दरअसल उसने देखा या भोगा  हुआ होता है. यहाँ आकर वह घटना या क्षण एक साहित्यक सवरूप धारण करता है.      

अब इन्ही बिन्दुयों को आपकी लघुकथा पर लागू करके देखने का प्रयास करता हूँ ताकि बात साफ़ हो सके. रोहन अपने घर का सामान खरीदने के लिए बाज़ार जाता है, और वह सौ डेढ़ सौ रुपये का हेरफेर करता हुआ बताया गया है. अब सवाल यह उठता है कि रोहन को ऐसा करने की ज़रूरत क्यों पड़ी, आप यह बताने में अंत तक असमर्थ रहे हैं. अर्थात लघुकथा का मूल अर्थात उसका उद्देश्य ही आपकी रचना से नदारद है. इसी वजह से आप एक मजबूत खाका खींचने में सफल नहीं हो सके, क्योंकि खाका या ढांचा कमज़ोर था तो लघुकथा में भी वह सुंदरता नहीं आ पाई.

रोहन को बिल बनवाने की क्या ज़रूरत आन पड़ी थी ? घर का सामान खरीदते हुए मनिहारी या किराना की दुकान से बिल बनवाना क्या अटपटा नहीं लग रहा ?

लघुकथा कुछ ऐसी चुस्त और कसी हुई होती है कि इसमें एक भी फालतू शब्द आँखों को चुभता है. यहाँ बात इशारों में हो तो ज्यादा प्रभावशाली हो जाती है. मसलन आपकी लघुकथा में मनिहारी की दुकान का ज़िक्र आया है; सामान्यतय: सिगरेट इत्यादि चीज़ें मनिहारी की दूकान पर नहीं मिला करतीं। यहाँ केवल दुकान वाला / वाले लिखने से काम ही कम चल सकता था.         

इसी की दूसरी उदहारण आपकी निम्नलिखित पंक्ति है:
//दूकानदार ने अपनी सरसराती निगाहों से सूची देखकर कहा// "अपनी सरसराती निगाहों से" क्या गैर ज़रूरी नहीं लगता ?

तीसरी मिसाल:
//" यह लो एक हजार का नोट, आठ-नौ सौ का बिल बना दो, एक पचास रु. वाला 3G नेट टेरिफ , और एक सिगरेट का पैक भी दे दो...."    रोहन  ने बड़े ही अनुभवी लहजे में कहा// मुझे नहीं लगता कि यहाँ इतनी लम्बी डिटेल देने की कोई ज़रूरत थी. इतना लम्बा विवरण रचना को उबाऊ बना देता है.

लघुकथा का पुराना विद्यार्थी हूँ अत: इस विधा में खुद को थोडा सा सहज महसूस करता हूँ. इसीलिए आपकी लघुकथा पर इतने विस्तार और पूरी ईमानदारी से कहने का प्रयास किया। आप चाहें तो अन्यथा ले सकते हैं.  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 9, 2013 at 10:36am

रोहन बेटा या नौकर ?खरीदारी में दुकानदार से मिलकर पैसे बचाने के लिए हेर फेर १००० के नोट में से १००  रूपये गटक जाना ...कथा का शानदार उद्देश्य तो समझ में आ रहा है पर जैसे की राम शिरोमणि जी का प्रश्न है की नेट बलेंस (मुझे भी पता नहीं ये क्या है शायद दारु से सरोकार होगा )क्या मनिहारी की दूकान पर मिलता है सिगरेट तो मिल सकता है पर पचार रूपये का ये नेट बेलेंस क्या है जरा स्पष्ट करें तो कथा समझने में आसानी होगी थोड़े से सुधार से कथा निखर जायेगी ,बहरहाल बधाई जीतेन्द्र जी 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on December 9, 2013 at 10:17am

आपका मार्गदर्शन शिरोधार्य है, आपका हृदय से आभार आदरणीय योगराज जी, अपना स्नेहिल मार्गदर्शन बनाये रखियेगा

सादर!


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 8, 2013 at 8:34pm

आदरणीय जीतेन्द्र जी, मुझे यह लघुकथा समझ में नहीं आयी, आखिर लेखक कहना क्या चाह रहा है, कई बार पढ़ने के बाद भी यह लघुकथा राउंड राउंड कर ऊपर से .....

Comment by ram shiromani pathak on December 8, 2013 at 8:15pm

मनिहारी की दुकान पर मिलता है????? सिगरेट का पैक

कितने का सामान होगा लगभग सात सौ रुपए का...........यह लो एक हजार का नोट, आठ-नौ सौ का बिल बना दो (कैलकुलेशन बराबर नहीं लग रहा भाई )

कृपा कर मार्गदर्शन करें जीतेन्द्र भाई.........   सादर  

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