इक पल मैं हूँ..........
इक पल मैं हूँ इक पल है तू
इक पल का सब खेला है
इक पल है प्रभात ये जीवन
इक पल सांझ की बेला है
इक पल मैं हूँ..........
ये काया तो बस छाया है
इससे नेह लगाना क्या
पूजा इसकी क्या करनी
ये मिट्टी का ढेला है
इक पल मैं हूँ..........
प्रश्न उत्तर के जाल में उलझा
मानव मन अलबेला है
क्षण भंगुर इस जिस्म में लगता
साँसों का हर पल मेला है
इक पल मैं हूँ ………
अंत पंथ का अविदित है
है अपरिचित हर पल यहाँ
अमर नहीं कोई इस जग में
ये जग चला-चली का मेला है
इक पल मैं हूँ ………
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
aa.Giriraj Bhandaari jee rachna par aapkee snehil prashansa ka haardik aabhaar
सरना जी
पल ही का सब खेल है i कबीर बाबा कह ही गये है कि पल में परलय होइगी बहुरि करोगे कब्ब i
आपकी कविता में पल के बहुवर्णी चित्र है i आपको बधाई i
प्रश्न उत्तर के जाल में उलझा
मानव मन अलबेला है
क्षण भंगुर इस जिस्म में लगता
साँसों का हर पल मेला है
इक पल मैं हूँ ………...........बहुत सुंदर बात कही है आपने सुशील जी हार्दिक बधाई.
सादर
कुंती.
आदरणीय सुशील सरना जी, नश्वर जीवन की सच्चाई को आपने बहुत खूबसूरती से बयान किया है !!!! रचना के लिये आपको बधाई !!!!
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