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जरूरत ................ लघु कथा ( अन्नपूर्णा बाजपेई )

जरूरत

 

पूनम कानों मे ईयर फोन लगाये रेलिग के सहारे खड़ी किसी से बाते कर रही थी , पास ही चारपाई पर लेटा उसका दो माह का दूधमुहा शिशु बराबर बिलख रहा था । इतनी देर मे तो पड़ोस की छतों से लोग भी झांक कर देखने लगे थे कि क्या कोई है नहीं बच्चा इतना क्यों रो रहा है ?

देखा तो पूनम पास ही खड़ी थी लेकिन उसका मुंह दूसरी ओर था । लोगों ने आवाज भी लगाई पर उसने सुना नहीं । अब तक नीचे से बूढ़ी सास भी  हाँफती हुई आ गई थी और बड़बड़ाते हुए उन्होने बच्चे को गोद मे उठा लिया । परन्तु पूनम कि बातें खतम नहीं हुई । उन्होने बच्चे को साफ किया मालिश करके नहला धुला कर सुला दिया था । अभी भी वह ज्यों की त्यों ही खड़ी थी । उनसे रहा न गया आखिर पास जाकर बोल ही दिया ‘ क्यों बहू बातें आज ही खत्म करोगी या ........’ । पूनम तड़प कर बोल पड़ी- ‘सुनिए माँ जी बच्चे की जरूरत आपको थी मुझे नहीं , अब संभालिए भी आप । नहीं संभल रहा तो दे दीजिये जिस किसी को जरूरत हो । मै अपना जीवन इस बच्चे के लिए नहीं खराब कर सकती । ये पोतड़े बदलना उसको नहलाना ओह ! माय गॉड छिः !! मुझसे नहीं होगा ।

समय के साथ बच्चा बड़ा होने लगा ।  दादी माँ का देहांत हो गया । माँ भी अब अपने यौवन को खोने लगी थी , ढलती उम्र मे अब उसे उसी बच्चे के साथ की जरूरत थी । 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 1, 2013 at 4:00pm

कोई कथा अथवा लघुकथा मुख्यतः उसके कथानक, पात्रों के चरित्र-चित्रण, निहित वातावरण के वर्णन, इसके पात्रों के पारस्परिक कथोपकथन, उनकी प्रयुक्त भाषा एवं कथ्य शैली तथा कथा या लघुकथा के उद्येश्य जैसे छः विन्दुओं की कसौटी पर मान्यता पाती है. 

इन्हीं विन्दुओं के सापेक्ष किसी कथा या लघुकथा को आँका जाना चाहिये. इनमें से किसी एक विन्दु का सार्थक रूप से निर्वहन न हो पाना किसी लघुकथा या कथा के ख़ारिज़ हो जाने का कारण बन सकता है.

कोई रचना मात्र भावुकता के आधारभूत-विन्दु पर आश्रित होती है तो यह रचनाकार की कमज़ोरी मानी जाती है. 

ऐसा नहीं होना चाहिये, न इसके प्रति पाठकों द्वारा भी कोई आग्रह होना चाहिये.


पाठकों द्वारा किसी रचना के प्रति उपरोक्त विन्दुओं के सापेक्ष उठाये गये कदम ही किसी रचनाकार को साहित्य सृजन हेतु अर्थवान, ठोस और सुगढ़ दृष्टि देंगे. जिन्हें लगातार साध कर कोई रचनाकार साहित्याकाश में अपनी सार्थक उपस्थिति बना सकता है. प्रोत्साहन एक बात है और संवर्धन नितांत दूसरी बात.  इस अंतर को जितना शीघ्र समझ लिया जायेगा, पाठकधर्म निभाना भी उतना ही सकारण होगा, साथ ही, रचनाकारों द्वारा रचनाकर्म भी विन्दुवत और परिष्कृत होगा.

उपरोक्त संदर्भ के पटल पर मैं इतना ही कहूँगा कि आदरणीया अन्नपूर्णा वाजपेयी इस मंच की नयी सदस्य नहीं रह गयी हैं कि उन्हें मात्र उत्साहवर्द्धन की आवश्यकता है. इस मंच और मंच के पाठकों का दायित्व एक रचनाकार के तौर पर उनके संवर्धन का भी है. इनकी रचनायें कई स्थानों और प्रिण्ट में स्थान पाने लगी हैं.

प्रस्तुत रचना अवश्य उद्येश्यपूर्ण है लेकिन निहित वातावरण का वर्णन इस पूरे प्रयास को उथला बना रहा है जिसकी ओर पाठकों का ध्यान जाना आवश्यक है.
सादर

Comment by vijay nikore on December 1, 2013 at 12:36pm

इस अति सुन्दर लघु कथा पर आपको बधाई।

सादर,

विजय निकोर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 1, 2013 at 12:23am

ए भाई-बहिन लोगो... रचना के टाइमलाइन पर शुभ्रांशु भइया ने एगो बढिया प्रश्न और निकहा इशारा किया है, तिसपर कवनो का ध्यान नहीं गया है का ? मोबाइल आ इयरफून कौनी साल में आया अपने बीच ?  आ तबका जनमतू बचुआ बहुत्तो होगा त सोरह-सतरह बरिस से बेसी का नहीं होगा.

अब आगे कुल्ही अपनहीं जोड़-घटा लीजियेगा, सिद्धांतवादियो .... :-)))))))))))))

वैसे लघुकथा के वातावरण और काल्पनिक समयावधि को छोड़-बिसरा दिया जाए तो रचना प्रयास और उद्येश्य सकारात्मक हैं.

शुभकामनाएँ

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 30, 2013 at 11:14pm

 बढ़िया कथा, अच्छा सन्देश देती हुयी, बधाई स्वीकारें आदरणीया अन्नपूर्णा जी

माफ़ कीजियेगा आदरणीय निलेश जी, आपके सवाल //बाप कहाँ था उस समय ?????//  इस लघुकथा से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता, हालाँकि बाप की जिम्मेदारियां होती है, और //कुंती क्या थी ???? और निर्दयी पति और पिता श्री रांम का क्या???? जी गर्ब्वती पत्नी को जंगल में छुडवा देतें है ??? यह सब भी आदरणीय अखिलेश जी की प्रतिक्रिया का सही उत्तर नहीं है

Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 30, 2013 at 10:30pm

आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी निर्दयी मां क्या सिर्फ पश्चिम में होती है .... कुंती क्या थी ???? और निर्दयी पति और पिता श्री राम का क्या???? जी गर्ब्वती पत्नी को जंगल में छुडवा देतें है ???

Comment by वेदिका on November 30, 2013 at 10:28pm

बढ़िया कथा और मर्मस्पर्शी संदेश कहा है कथा ने! मेरे विचार से कथा को और सम्पादन की जरूरत हो रही है, 

हार्दिक बधाई आ0 अन्नपूर्णा दी!

Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 30, 2013 at 10:28pm

एक सवाल उठा है मन में ..... बाप कहाँ था उस समय ????? हर बात के लिए नारी को दोष कब तक देंगे  हम ???

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on November 30, 2013 at 10:14pm

पश्चिम से प्रभावित होने वाली एक निर्दयी माँ पर कटाक्ष करती  सुंदर कथा की बधाई आ. अन्नपूर्णाजी ।

Comment by annapurna bajpai on November 30, 2013 at 9:59pm

 आदरणीया राजेश कुमारी जी अपने सही कहा , आपका हार्दिक आभार । 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 30, 2013 at 8:16pm

आज के बदलते परिवेश में जहाँ हम बच्चों को दोष देते हैं वहीँ कहीं न कहीं हम भी जिम्मेदार होते हैं सुन्दर कटाक्ष करती लघु कथा ,बधाई आपको अन्नपूर्णा जी 

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