कभी गिरते कभी उठते कभी सभलना सीख जाते हैं ।
मंज़िल उनको मिलती है जो चलना सीख जाते हैं ।
नये हर एक मौसम में नया आगाज़ करते हैं ,
वक्त के साथ जो खुद को बदलना सीख जाते हैं ।
बनके दरिया वो बहते हैं और सागर से मिलते हैं ,
जो बर्फीले सघन पत्थर पिघलना सीख जाते हैं ।
उन्होंने लुत्फ़ लूटा है बहारों कि इबादत का ,
बीज मिट्टी में मिट मिट कर जो मिलना सीख जाते हैं ।
अजब सौन्दर्य झलकाते बिखेरें रंग और खुशबू ,
जो काँटों और कीचड़ में भी खिलना सीख जाते हैं ।
मौलिक व अप्रकाशित
नीरज 'प्रेम'
Comment
आ0 प्रेम जी रचना के भाव बहुत अच्छे है कथ्य भी अच्छा है , सुंदर प्रस्तुति बधाई ।
रचना के भाव अच्छे लगे, आदरणीय नीरज जी। बधाई।
सादर,
विजय निकोर
धन्यवाद श्याम नारायण वर्मा जी ।
बनके दरिया वो बहते हैं और सागर से मिलते हैं ,
जो बर्फीले सघन पत्थर पिघलना सीख जाते हैं...बेहतरीन ग़ज़ल का मेरा पसंदीदा शेर..आपको ढेरों बधाई नीरज जी
बहुत सुन्दर , बधाई स्वीकारें आदरणीय
नीरज जी
आपकी ग़ज़ल अच्छी है
मंजिल उनको मिलती है ------
bhaavnaaon ati sundr prastutikarna...haardik badhaaee
सुंदर भावनात्मक रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीय नीरज भाई
रचना मे अच्छा कथ्य है| रचना किस विधा मे है?
सादर!!
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