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विसंगति ... विजय निकोर

विसंगति

अंतरंग मित्र

हितैषी मेरे

हँसती रही हैं साँसें मेरी

स्वप्निल खुशी में तुम्हारी

सँजोए कल्पना की दीप्ति

फिर क्यूँ तुम्हारी खुशी के संग

यूँ उदास है मन

आज

अपने लिए ...?

यादों के झरोखों के इस पार

पावन-समय-पल कभी भटकें

कभी लहराएँ, मंडराएँ

ले आएँ रश्मि-ज्योति द्वार तुम्हारे

हँस दो, हँसती रहो, तारंकित हो आँचल

मुझको तो अभी गिनने हैं तारे

सुदूर-स्थित विविध अँधेरों में

रात-बेरात

आज और कल और परसों, और ...

भीगा है रूमाल

कोरों में किरकिरी

और धँसता चला आ रहा है

वीरान आँखों से अंदर

धुँए का अनन्त बवंडर

अनुभव ? कैसा अनुभव ? ... यही...

रक्तधार में पीड़ा तुम्हारी

पीड़ा में जमी रक्तधार

मेरी ... ठंडी गहरी

टप-टप टपकती

रोती रात की उदासी

मन आवारा अकारण अधीर

न ठहरता, न डूबता है

मुझमें मेरा विश्वास

बस टूटता है

चिपक गई है उदासी

गरम कोलतार-सी

आस्था के चेहरे पर

हाय, अब दीए की लौ-सा

क्यूँ काँपता है मन

झूठ था क्या ? झूठा था मैं ?

कि खुशी तुम्हारी मेरी खुशी है ...

               --------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 704

Comment

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Comment by vijay nikore on October 25, 2013 at 12:39pm

//खूबसूरत रचना//

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीया अन्नपूर्णा जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by विजय मिश्र on October 25, 2013 at 12:11pm
विजयजी , विसंगति तो जीवन क्रम के आरोह-अवरोह में आने ही हैं और इन से जीवन में व्यतिक्रम होना भी स्वाभाविक हैं ,हम लांछन के पात्र तब हैं जब हमारे उत्साह और चेष्टा में नाटकीय अभाव हो ,वचनों के निर्वाह की उत्कंठा लवलेसित हो रही हो .सापेक्ष धर्म में निष्ठा और इमानदारी की प्रबलता न हो .
"टप-टप टपकती
रोती रात की उदासी
मन आवारा अकारण अधीर
न ठहरता, न डूबता है
मुझमें मेरा विश्वास
बस टूटता है
चिपक गई है उदासी
गरम कोलतार-सी
आस्था के चेहरे पर |" यहाँ आकर उभरा हर बार की तरह अपनी सुस्पष्टता लिए हुए . हार्दिक बधाई विजयजी
Comment by Sushil.Joshi on October 24, 2013 at 9:38pm

मर्म में लिपटी इस अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई आ0 विजय निकोर जी.... बधाई...

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 24, 2013 at 4:00pm

आदरणीय विजय सर ..इस मार्मिक प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई ..सादर प्रणाम के साथ 

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 24, 2013 at 11:47am

आदरणीय विजय सर बहुत ही मार्मिक प्रस्तुति हार्दिक बधाई स्वीकारें


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 24, 2013 at 11:22am

आदरणीय, यह कविता कविताई के क्रम में हो गयी दिखती है. तनिक गहन की आशा बहुत कुछ कहने से रोक गयी. 

हार्दिक बधाई.

सादर

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 24, 2013 at 9:56am

हाय, अब दीए की लौ-सा

क्यूँ काँपता है मन

झूठ था क्या ? झूठा था मैं ?

कि खुशी तुम्हारी मेरी खुशी है ..

अपनी अनूठी गहरी अनुभूति का सजीव चित्रण यहाँ स्पष्ट देखने को मिल रहा है, आपको रचना पर बहुत बहुत बधाई आदरणीय विजय निकोर जी

Comment by वेदिका on October 24, 2013 at 8:42am

मार्मिक भाव मे भीगी अनुभूति को दर्शाती हुयी रचना पर बधाई आ0 विजय जी!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 23, 2013 at 9:35pm

हाय, अब दीए की लौ-सा

क्यूँ काँपता है मन

झूठ था क्या ? झूठा था मैं ?

कि खुशी तुम्हारी मेरी खुशी है ...  ------------ आदरबीय बड़े भाई विजय जी , बहुत सुन्दर आंतरिक अनुभूतियों बहुत अच्छी तरह शब्द दिया  किया है आपने !!!!!! हार्दिक बधाई !!!!!

Comment by ram shiromani pathak on October 23, 2013 at 8:10pm

वाह अनुपम चित्रण आदरणीय विजय निकोर जी //हार्दिक बधाई आपको //सादर 

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