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आत्म-मन्थन

आत्म-मन्थन

कभी-कभी इन दिनों

आत्म-मन्थन करती

जीवन के तथ्यों को तोलती

मेरी हँसती मनोरम खूबसूरत ज़िन्दगी

जाने किस-किस सोच से घायल

कष्ट-ग्रस्त

‘अचानक’ बैठी उदास हो जाती है

 

लौट आते हैं उस असामान्य पल में

कितने टूटे पुराने बिखरे हुए सपने

भय और शंका और आतंक के कटु-भाव

रौंद देते हैं मेरा ज्ञानानुभाव स्वभाव

और उस कुहरीले पल का धुँधलापन ओढ़े

अपने मूल्यों को मिट्टी के पहाड़-सा गिरता देख

उसी मिट्टी में धंस जाता हूँ

छ्टपटाता हूँ

जितनी अधिक ऊँचाई थी मूल्यों की

उतना अधिक भार ढोता हूँ अपने पर

उस समय पास कोई रेश्मी आँचल नहीं

मद्धम-सी रोशनी का कोई सुराख़ भी नहीं

मेरे ही प्रिय सिधांत

टूट-टूट पड़ते हैं मुझ पर

क्यूँ ? .. आख़िर क्यूँ ? ...

 

इसलिए कि मैंने उस समय

भय और शंका और आतंक के कटु-भाव को

अनुशासन के प्रबल पर्वत-प्रतीकों से नहीं रोका ?

पर मुझको तो था विन्यस्त विश्वास

है आत्मा ही परमात्मा

सुख-शान्ति प्राधान्य है

वह न जन्मती है, न मरती है

फिर क्यूँ लगता है आज

किसी के अप्रत्याशित प्रहार से खंडित

जीवन के अति सूक्षम तथ्यों के बीच

टूट रही है, हार रही है आत्मा ?

-------

- विजय निकोर

९-२९-१३

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sanjay Mishra 'Habib' on October 2, 2013 at 9:33am

पाठक को भी चिंतनोन्मुख करता सशक्त चिंतन...

सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय जी...

Comment by बृजेश नीरज on October 2, 2013 at 6:52am

बहुत ही सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 1, 2013 at 10:59pm

आदरणीय विजय निकोर सर जवाब नहीं प्रस्तुति का बहुत ही सुन्दर अति सुन्दर हार्दिक बधाई स्वीकारें.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 1, 2013 at 9:58pm

आदरणीय बडे भाई विजय जी , बहुत ही सुन्दर चिंतन !! वाह वाह !!

इसलिए कि मैंने उस समय

भय और शंका और आतंक के कटु-भाव को

अनुशासन के प्रबल पर्वत-प्रतीकों से नहीं रोका ?

पर मुझको तो था विन्यस्त विश्वास

है आत्मा ही परमात्मा

सुख-शान्ति प्राधान्य है

वह न जन्मती है, न मरती है

फिर क्यूँ लगता है आज

किसी के अप्रत्याशित प्रहार से खंडित

जीवन के अति सूक्षम तथ्यों के बीच

टूट रही है, हार रही है आत्मा ? --------------------------- वाह !!!!!!

Comment by ram shiromani pathak on October 1, 2013 at 7:32pm

आत्म मंथन का सारा रस निचोड़ लिया आपने वाह ! बहुत सुन्दर रचना आदरणीय विजय निकोर जी //हार्दिक बधाई आपको //सादर 

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 1, 2013 at 5:40pm

आतंक अनाचार के आगे  हर कोई पस्त लगता है।  मुझे तो पूरा भारत ही भय से ग्रस्त लगता है ॥

आपकी पीड़ा हम सब की पीड़ा है । पूरी व्यवस्था बदलनी होगी , तभी आशा की किरण दिखाई देगी ।  

बधाई विजय भाई अपनी पीड़ा के बहाने  सब की आत्मा  को जगाने के लिए। 

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