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२ १ २ २ १ १  २  २   २  २
जिंदगी   कैसी  कज़ा चाहती है
मर के जीने की दुआ चाहती है

.
बीत गया जो तुझे साथ मुबारक
मेरी दुनिया तो नया चाहती है

.
वो अगर चाहे हमें क्षमा कर दे,
अब मगर वो भी सज़ा चाहती है

.
छीन ली उस ने हमारी दुनिया,
छीन अब न सके खुदा चाहती है

.
वो छुपा लेती है अँधेरा खुद में
जिन से लौ उन का पता चाहती है

.
जो थी मंजल हमें दिखाने निकली ,
राह   में  भटकी  पता  चाहती है

मौलिक -व्- अप्रकाशित

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Comment

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Comment by मोहन बेगोवाल on September 10, 2013 at 10:52pm

आदरनीय डाक्टर ललित जी,

मै आप जी की तरफ से बताई बहर अनुसार गजल कहने का प्रयास किया हे कृपा मेरा  मार्गदर्शन कीजिएगा ,धन्यवाद

२    १  २   २    १   २  २     १  २    २  १ २

जिंदगी  आज कैसी कजा  चाहती 

मर के जीने की वो क्यों दुआ चाहती

बीत जायेगा जो आयेगा  दिन कहाँ  

मेरी दुनिया मगर कुछ नया चाहती

वो अगर  चाहती तो क्षमा कर देती

अब मगर वो भी  मेरी सजा चाहती

छीन ली ऐसे ही मुझ से दुनिया मेरी

छीन अब ले  मुझे ये खुदा  चाहती

वो छुपा  लेती  हे  ये  अँधेरा अभी

जिन से लौ तो कभी का पता चाहती

जो थी मंजल हमें खुद दिखाने निकली  

राह  वो भटकी खुद का पता चाहती

Comment by Dr Lalit Kumar Singh on September 9, 2013 at 10:56pm

जिंदगी आज कैसी कज़ा चाहती
मर के जीने की वो क्यों दुआ चाहती
मोहन बेगोवाल जी , इसे
२१ २ २१२ २१ २ २ १ २
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
बहरे मुतदारिक मुसम्मन सलीम पर लिखें . मज़ा आ जायेगा . सादर

Comment by वीनस केसरी on September 2, 2013 at 3:51am

मोहन साहब बहुत कठिन बहर चुन ली है और कई जगह निभाने में चूक हो गई है ... तक्तीअ करके देख लिया करें ..
तक्तीअ से सब कुछ स्पष्ट हो जाता है

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 2, 2013 at 12:28am

वो छुपा लेती है अँधेरा खुद में
जिन से लौ उन का पता चाहती है......वाह! बहुत खूब, बेहतरीन शेर

सुंदर गजल पर बधाई स्वीकारे आदरणीय मोहन जी

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 1, 2013 at 5:32pm

आदरणीय मोहन सर जी ग़ज़ल एक बार आप पुनः जांच लें आपने किस बहर पर लिखी है २ १ २ २ १ १  २  २   २  २ में एक जगह १ रह गया है. प्रयास पर बधाई स्वीकारें.

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on September 1, 2013 at 5:27pm

जिंदगी   कैसी  कज़ा चाहती है--  अच्छी लगी , बधाई ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 1, 2013 at 10:05am

मर के जीना ही तो ख्वाइश है ..बेहतरीन ..सादर बधाई 


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 1, 2013 at 7:40am

अच्छी गज़ल कही , मोहन भाई !! बधाई !!

Comment by Abhinav Arun on September 1, 2013 at 6:31am

उम्दा ग़ज़ल .बहुत बधाई !

Comment by vandana on September 1, 2013 at 6:26am

वो छुपा लेती है अँधेरा खुद में
जिन से लौ उन का पता चाहती है

वाह सर बहुत बढ़िया 

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