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मैं लिखा करता हूँ

भाव की ध्वनियों को;

उतारता हूँ

नए शब्दों में

नए रूपों में।

 

रस, छंद, अलंकार

तुक, अतुक

सब समाहित हो जाते हैं

अनायास।

ये ध्वनि के गुण हैं;

शब्द के श्रंगार।

इन्हें खोजने नहीं जाता।

 

मुझे तो खोज है

उस सत्य की

जिसके कारण

मैं सब कुछ होते हुए भी

कुछ नहीं

और कुछ न होते हुए भी

सब कुछ हो जाता हूँ।

 

शायद किसी दिन

किसी अक्षर

किसी शब्द के पीछे

छिपे अर्थ में से

सहसा प्रकट हो जाए

वह सत्य

और मेरी आंख का

मोतियाबिन्द खत्म हो जाए।

              - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by राज़ नवादवी on July 19, 2013 at 9:17am

'मैं लिखा करता हूँ

भाव की ध्वनियों को;'

बहुत खूब!

Comment by Parveen Malik on July 19, 2013 at 8:51am
शायद किसी दिन
किसी अक्षर
किसी शब्द के पीछे
छिपे अर्थ में से
सहसा प्रकट हो जाए
वह सत्य
और मेरी आंख का
मोतियाबिन्द खत्म हो जाए
बहुत सुन्दर बधाई बृजेश जी ....
Comment by बृजेश नीरज on July 18, 2013 at 7:30pm

आदरणीय जितेन्द्र जी आपका आभार!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 18, 2013 at 6:00pm

आदरणीय..बृजेश जी, गहरी भावनात्मक रचना पर हार्दिक बधाई..

Comment by बृजेश नीरज on July 18, 2013 at 5:44pm

आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार! आपकी विस्तृत टिप्पणी ने मेरे अनकहे को भी रूप दे दिया।

आपका कहना सत्य है कि नकारात्मक शब्द नकारात्मक ऊर्जा ही देते हैं। आपका सुझाव  शिरोधार्य। उपयुक्त शब्द की तलाश करता हूं।

वैसे मैंने मोतियाबिन्द शब्द जानबूझकर ही प्रयोग किया था। मोतियाबिन्द वह अवस्था जिसमें सामने का स्पष्ट भी अस्पष्ट ही दिखता है। सब कुछ धुंधला सा। जो सहज स्वीकार्य होना चाहिए वह सत्य भी धुंधलके की अस्पष्टता के कारण समझ ही नहीं आता। उस अवस्था में रहते हुए सत्य की तलाश है कि कभी समझ आ जाए तो यह धुंधलका छंट सके।

यह मेरी सोच थी रचना लिखते समय जिसके कारण यह शब्द मैंने प्रयोग किया। पुनः सोचता हूं कि इसके स्थान पर क्या उपयुक्त शब्द या वाक्यांश प्रतिस्थापित किया जा सकता है।

आपका एक बार फिर हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on July 18, 2013 at 5:06pm

आदरणीय राजेश जी आपका हार्दिक आभार!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 18, 2013 at 5:03pm

आदरणीय बृजेश जी 

इस अभिव्यक्ति की गहनता कर क्या कहूँ बस निःशब्द हूँ 

भाव से उत्पन्न ध्वनि स्पंदन को शब्द देने के लिए वाह्य शृंगार की ज़रूरत नहीं होती, वह भाव का ही गुण बन अनायास आ जाता है..उसमें समाहित ही होता है ...

अक्षर के पीछे के सत्य को खोजना, भाव स्पंदन की गहन अनुभूति में शांत होते हृदय के समक्ष ऐसे सत्य 'आप्त वाक्य' के रूप में सहसा ही आ प्रकट होते हैं...नमन इन उच्च भावों के लिए 

अब रचना के शिल्प पर : पूरी प्रस्तुति बहुत सुन्दर, सकारात्मक..लेकिन अंत में मोतियाबिंद शब्द कुछ रुचा नहीं, यहाँ तो पट खुलने चाहिये थे, या सत्य के आलोक से आँखे खुलनी चाहिये थीं.... मैं आध्यात्मिक दर्शन युक्त प्रस्तुतियों में नकारात्मक शब्दों के प्रयोग से बचती हूँ, और यहाँ तो बात अक्षरों की ध्वनियों की हो रही है, फिर नकारात्मक शब्द की ध्वनि और स्पंदन को जगह क्यों दें .

(ये मेरी निजी सोच है)..शायद सहमत हों पायें 

इस उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ 

सादर.

Comment by राजेश 'मृदु' on July 18, 2013 at 4:45pm

बहुत सुंदर रचना हुई है आदरणी, सादर

Comment by बृजेश नीरज on July 18, 2013 at 3:49pm

आदरणीय श्याम नारायण जी आपका आभार!

Comment by Shyam Narain Verma on July 18, 2013 at 3:47pm

बहुत सुन्दर ,ढेरों बधाई .................

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