आईना देख कर
हो गई बावरी
नैन रतनार से
देह भी मरमरी ||
कुछ कहें सुन्दरी
कुछ कहें है परी
सुन के ऐसा लगे
ज्यों बजी बंसरी ||
मस्त अंगड़ाइयाँ
उफ् अदा मदभरी
कुंतलों में बसी
थी घटा साँवरी ||
एक दिन क्या बताऊँ
मैं कैसी डरी
खत्म जैसे हुई
सारी जादूगरी ||
रूप की फुलझरी
कर गई मसखरी
पीत पड़ने लगी
पत्तियाँ सब हरी ||
झुर्रियाँ कह गईं
आज बातें खरी
आईना रह गई
मैं धरी की धरी ||
(मौलिक व अप्रकाशित)
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शम्भूश्री अपार्टमेंट, विजय नगर, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
Comment
इस व्यवस्था को जीवन कहते हैं ! .. :-))))
वाह !
सादर
रूप की फुलझरी
कर गई मसखरी
पीत पड़ने लगी
पत्तियाँ सब हरी ||
जीवन की यही सच्चाई है बहुत सुन्दर प्रस्तुति बहुत बहुत बधाई अरुण निगम जी
आदरणीय गुरुदेव श्री वाह आपकी यह कला भी मन मोह गई, छोटी छोटी पंक्तियाँ किन्तु भाव गंभीर कर रही हैं, क्या कहने सरलता और सुन्दरता से सुशोभित लाजवाब लेखन हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें.
वाह वाह आदरणीय अरुण जी,सुन्दर पंक्तियां//हार्दिक बधाई
वाह वाह आदरणीय सर जी सादर प्रणाम
ग़ज़ब का लेखन
सुन्दर सहज और शानदार
टूटा फूटा हो भले, दर्पण बोले सांच
चाटुकारी होय नहीं , चाहे आये आंच
बधाई हो इस अद्भुत रचना हेतु
सहज सुन्दर शब्द प्रेम-निर्झर की कल-कल में विभोर कर गये आदरणीय! श्रद्धेय आपकी लेखनी को नमन है! सादर,
वाह वाह वाह-
शुभकामनायें आदरणीय-
आई आई सामने, कुदरत का आईन ।
आकर्षक है आईना, दीख रहा कवि दीन ॥
रूप की फुलझरी
कर गई मसखरी
पीत पड़ने लगी
पत्तियाँ सब हरी...
वाह !! बहुत ही सुंदर प्रस्तुति ..
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