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शक करने का काम

 

वो शक करता है

हर मिलने-जुलने वालों पर

और अपने गुर्गों द्वारा

करता रहता पड़ताल

कहीं कोई भेदिया तो

बदल कर भेस 

घुस आया हो

उसके आभा-मंडल में....

 

वो शक करता है

अपने दरबारी, सिपहसालारों पर

चमचों-चाटुकारों पर

इसीलिये कुछ को देता रहता है सज़ाएँ

कुछ को पुरस्कार

कुछ का तिरस्कार....

 

वो शक करता है

खास अपनों पर भी

कहीं बन तो नही रही

कोई गुप-चुप योजना

उसके निजाम के खिलाफ

उसके ऐशो-आराम के खिलाफ...

 

उसे पिलाई गई है घुट्टी ऐसी

कुल मुलाकार देखा जाए

तो खाने, अघाने, गुर्राने, चिल्लाने

डकारने, पादने,

खुश होने जैसे महत्वपूर्ण काम

निपटाने के लिए ही तो

लिया है उसने जन्म

इस धरा पर....

और हाँ,

शक करने वाला काम तो

सबसे महत्वपूर्ण है

वरना डोल जाएगा

उसका सिंहासन.....

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Comment

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 26, 2013 at 4:02pm

शक बेशक बड़े काम की  चीज है 

घुटते रहो खुद भी घुटाते रहो सभी को 

ये नींद हराम करने की चीज है 

सादर बधाई 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 26, 2013 at 11:49am

भाई श्री अनवर सुहैल जी, आपका यह शाकी इंसान हर किसी पर ही नहीं, बल्कि अपने आप पर भी शक करता होगा 

शाकी दिमाग का व्यक्ति घर को ही ताला लगा कर नही, बल्कि अपने दिमाग पर भी ताला लगाए रखता होगा

शक करने वाले पर लिखी गयी नितांत यथार्थ बयान करती रचना के लिए हार्दिक बधाई 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 26, 2013 at 10:16am

आदरणीय अनवर जी 

यदि व्यक्ति विशवास करना नहीं सीखता....तो वो कभी जिन्द्दगी जी ही नहीं सकता और न ही दूसरों को जीने देता है...

खुद भी अनजाना बोझ ढोता है और दूसरों को भी बोझ तले ही दबाये रखता है..... ऐसी वैचारिकता एक अभिशाप ही है, जो इंसान को इंसान से बेबात विलग कर दे, इंसानियत पर ही प्रश्नचिन्ह लगाए ऐसे निराधार शक पर लिखी गयी इस सार्थक  अभिव्यक्ति पर हार्दिक बधाई 

सादर. 

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 26, 2013 at 7:54am

आदरणीय अनवर सुहैल साहब सादर, सच है जब अयोग्य व्यक्ति के हाथ राजपाट आ जाए तो उसे सर्वाधिक चिंता उस सिंहासन की ही रहती है. सुन्दर रचना कर्म पर कोटिशः बधाई स्वीकारें.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 25, 2013 at 8:04pm

कमजोर नीव पर मकान बनाने वाले हमेशा डरते रहते है की कब आंधी तूफ़ान आ जाये और उनका कमजोर मकान गिर जाए, इसीलिए वो हर पल शक के घेरे में रहते हैं , बढ़िया रचना, आदरणीय अनवर सुहैल साहब । 

Comment by ram shiromani pathak on April 25, 2013 at 12:25pm

आदरणीय उच्च कोटि का  कथ्य और सटीक व्यंग  ///// हार्दिक बधाई आपको 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 25, 2013 at 10:12am

आ0 अनवर सुहैल जी, सर जी, ऐसे लोग ही अतिडरपोक होते हैं। तभी तो वे दूसरों पर गुर्राते रहते हैं। अतितीक्ष्ण कटाक्ष। बहुत बहुत बधाई स्वीकारें। सादर,


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 25, 2013 at 12:44am

जिन इकाइयों को इंगित कर रचना अपनी बात करती गयी है वो इकाइयाँ पिछले दरवाजे से या फिर बलात् ही समाज के सिर-कान्धों पर लद जाती रही हैं. सदा-सदा से !  कभी धार्मिक ठेकेदारों के नाम पर, कभी शासक के नाम पर, कभी नीतिज्ञ के नाम पर ! ये इकाइयाँ अकर्मण्य़ जीवन का संपोषक हुआ करती हैं. यह भावना परिवार के सदस्य जैसी इकाई में है तो किसी समुदाय विशेष पर भी हावी है जिससे वह स्वयं को अन्य समुदायों के सापेक्ष सबसे श्रेष्ठ समझने लगता है. 

आपकी रचनाधर्मिता बहुत ऊँची है आदरणीय अनवर भाईजी.  बहुत-बहुत बधाई स्वीकार करें. यह अवश्य है कि बेलाग होने के बावज़ूद कविता की अपनी सीमा होती है. यों, आपने कविता की सीमा को बेहतर निभाया है.

सादर

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