२२१/२१२१/१२२१/२१२
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खंडित करे न देश को तलवार मजहबी
आँगन खड़ी न कीजिए दीवार मजहबी।।
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मन्शा उन्हीं की देश को हर बार तोड़ना
करते रहे हैं लोग जो व्यापार मजहबी।।
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जीवन न जाने कितने ही बर्बाद कर रहा
इन्सानियत से दूर हो सन्सार मजहबी।।
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माटी का मोल प्रेम की भाषा भी साथ हो
इन के बिना तो व्यर्थ है सँस्कार मजहबी।।
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समरसता ज्ञान और न आपस का मेल है
बच्चों को जो भी देते हैं आधार मजहबी।।
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करती नहीं है धर्म का कोई भी काम वो
कहने को चाहे आपकी सरकार मजहबी।।
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ठाने हुए हैं रक्त से भर देंगे हर नदी
इस पार मजहबी हैं तो उस पार मजहबी।।
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अब हैं लड़ाते लोक को अपने हिसाब से
मजहब का अर्थ भूल के दो चार मजहबी।।
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भाता नहीं है और का उसको तनिक भी रंग
कहता है मुझ सा तू भी हो गुलदार मजहबी।।
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मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।
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