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अहसास की ग़ज़ल::; मनोज अहसास

2×15

दूर कहीं पर धुंआ उठा था दम घुटता था मेरा भी
ख़्वाब में मैंने देख लिया था दिल सुलगा था मेरा भी

एक अदद मिसरा जो दिल से निकले और पहुँचे दिल तक
हर सच्चे शाइर की तरहा ये सपना था मेरा भी

टुकड़े टुकड़े दिल है पर मरने की चाह नहीं होती
तेरे अहसानों के बदले इक वादा था मेरा भी

मेरी आँखों की लाचारी तुम भी समझ नहीं पाए
खारे पानी के दरिया में कुछ हिस्सा था मेरा भी

दिल को यही दिलासा देकर काट रहा हूँ तन्हाई
इस मिट्टी के कुछ दानों पर नाम लिखा था मेरा भी

महफ़िल में कल बात चली थी चाहत के अफसानों की
मेरे दुश्मन बता रहे हैं ज़िक्र हुआ था मेरा भी

कागज़ की इक नाव को लेकर निकले देखे कुछ बच्चे
जाने क्यों याद आया मुझको इक सपना था मेरा भी

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by मनोज अहसास on April 28, 2022 at 5:36pm

आदरणीय सौरभ पांडेय जी गजल पर आपकी उपस्थिति को देख कर मन बड़ा हर्षित हुआ एक समय वह था जब आप हमारी हर गजल पर इसी तरह इस्लाह करते थे लेकिन इस समय आप भी बिजी हैं हम भी बिजी हैं लेकिन आप आए तो बहुत अच्छा लगा मैं आपकी बात को पूरा पूरा मान देता हूं और इस को सुधारने का प्रयास करता हूं सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 4, 2022 at 10:43pm

भाई मनोज जी, मात्रिक बहर पर की गयी कोशिश पर बधाई स्वीकार करें. 

सुधार की जहाँ आवश्यकता थी, आदरणीय समर साहब ने इंगित कर ही दिया है. मेरा बस इतना ही कहना है कि मिसरों में संबंध और तार्किकता साथ-साथ निभायी जाती हैं. मेरा इशारा आखिरी शेर को लेकर है.

कहने का तात्पर्य यह है, कि, जब आपने कारण जान ही लिया कि बच्चे कागज की नाव लेकर निकले हैं तो फिर 'जाने क्यों याद आया मुझको' कहने की क्या जरूरत है ? आपको तो उला के अनुसार पता ही है कि सपना क्यों याद आया. 

विश्वास है, आप आशय समझ रहे होंगे. मैं शायद कह पाया. या, न कह पाया होऊँ. आप अन्यथा मत लीजिएगा.

शुभ-शुभ

Comment by मनोज अहसास on March 31, 2022 at 8:05pm

बहुत-बहुत आभार आदरणीय मिथिलेश जी मंच पर आपकी उपस्थिति सुखद है आपका मार्गदर्शन मिलता रहे तो बड़ी कृपा होगी

सादर

Comment by मनोज अहसास on March 31, 2022 at 8:04pm

बहुत-बहुत आभार आदरणीय समर कबीर साहब आपका आशीर्वाद मिल जाता है तो ग़ज़ल पूरी हो जाती है बाकी हम प्रयास करेंगे जो आपने इस्लाह दी है उस पर पूरा पूरा अमल होगा

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 29, 2022 at 11:05pm

बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है। हार्दिक बधाई।

Comment by Samar kabeer on March 29, 2022 at 3:45pm

जनाब मनोज अह्सास जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा  प्रयास हुआ है, बधाई स्वीकार करें I 

'हर सच्चे शाइर की तरहा ये सपना था मेरा भी'

इस मिसरे में 'तरहा' शब्द को 22 पर लेना उचित नहीं होता 'तरह' शब्द को 12 या 21 पर लिया जा सकता है 22 पर नहीं , सुधार का प्रयास  करें I 

'कागज़ की इक नाव को लेकर निकले देखे कुछ बच्चे'

इस मिसरे को उच्जित लगे तो यूँ कहें :-

'काग़ज़ की इक नाव लिये जब घर से निकले कुछ बच्चे '

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