221--1221--1221--122
1
कैसे न सनम मचलें'गे जज़्बात हमारे
महफ़िल में अगर गाएंगे नग़्मात हमारे
2
दुनिया का वतीरा भी निभा सकते हैं लेकिन
इन सबसे अलहदा हैं ख़यालात हमारे
3
ईमान की बाज़ार में कीमत नहीं कुछ भी
किस तर्ह से फिर सुधरेंगे हालात हमारे
4
जल जल के बुझी जाती है उम्मीदों की शम्मा
दम तोड़ते हैं साथ सवालात हमारे
5
माज़ी को सिरहाने तले रख सोचते हैं हम
क्यों एक से रहते नहीं दिन रात हमारे
6
ताउम्र तड़पते रहे उसके लिए 'निर्मल'
मिलते नहीं थे जिससे ख़यालात हमारे
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय समर कबीर सर् सादर नमस्कार।जी सर्,इस तरह से सुधार कर लेती हूँ। बेहद शुक्रिय:।
'जल जल के बुझी जाती है उम्मीदों की शम्मा'
इस मिसरे को यूँ कह सकती हैं
'जल जल के बुझी जाती है उम्मीदों की शमएँ'
आ. रचना बहन, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई।
आदरणीय समर कबीर सर् सादर नमस्कार।सर् ग़ज़ल तक आने के लिए तथा इस्लाह देने के लिए आपकी आभारी हूँ।जी,सर् आपके द्वारा बताए गए सुधार फेयर में कर लेती हूँ।
सर् कहीं शम्अ को शम्मा भी पढ़ा था इसीलिए इस्तेमाल कर लिया। आगे से ध्यान रखूँगी।
क्या "उम्मीद की शम्मा" को हटाकर "उम्मीद के दीपक" लिख सकते हैं सर्।
सादर।
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'कैसे न सनम मचलें'गे जज़्बात हमारे
महफ़िल में अगर गाएंगे नग़्मात हमारे'
मतला यूँ कहना उचित होगा:-
'कैसे न कहो मचलेंगे जज़्बात हमारे
महफ़िल में अगर गाएँ वो नग़मात हमारे'
'जल जल के बुझी जाती है उम्मीदों की शम्मा'
ये मिसरा बह्र में नहीं,क्योंकि "शम'अ" का वज़्न 21 होता है, कई बार बताया जा चुका है
'माज़ी को सिरहाने तले रख सोचते हैं हम'
इस मिसरे को उचित लगे तो यूँ कहें:-
'माज़ी को सिरहाने प रखे सोच रहे हैं'
बाक़ी शुभ शुभ ।
//सिरहाने का वज़्न 122 लिया है।// तब ठीक है, रचना जी।
आदरणिय अमीरुद्दीन'अमीर'जी नमस्कार। ग़ज़ल तक आने के लिए आभार। आदरणीय सिरहाने का वज़्न 122 लिया है।सादर
मुहतरमा रचना भाटिया 'निर्मल' जी आदाब, ख़ूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने मुबारकबाद पेश करता हूँ।
'माज़ी को सिरहाने तले रख सोचते हैं हम' इस मिसरे की बह्र चेक कर लें। सादर।
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