1222/1222/122
1
महकता वो चमन लाऊँ कहाँ से
जुदा जिसका तसव्वुर हो ख़िज़ाँ से
2
कभी पूछा है तुमने कहकशाँ से
हुए गुम क्यों सितारे आसमाँ से
3
न जाने क्या मिलाया था नज़र में
न चल पाए क़दम इक भी वहाँ से
4
सँभलने के लिए कुछ वक़्त तो दो
अभी उतरा ही है वो आसमाँ से
5
किसी सूरत बहार आए गुलों पर
उड़ी है इनकी रंगत ही ख़िज़ाँ से
6
हटा दे तीरगी जो मेरे दिल की
दिया वो लाऊँ मैं यारो कहाँ से
7
अज़ाब-ए-जीस्त रुसवाई ख़मोशी
मिले 'निर्मल' को तुहफ़े मेह्रबाँ से
मौलिक व अप्रकाशित
रचना निर्मल
Comment
आदीणीया रचना भाटिया जी अच्छी गजल कही आपने मुबारक बाद पेश करता हूँ। आदरणीय समर साहब की बातों कास्ंज्ञान लीजियेगा
आदरणीय समर कबीर सर्,सादर नमस्कार।सर हौसला बढ़ाने के लिए तथा ग़ज़ल पर इस्लाह करने के लिए आपकी बहुत आभारी हूँ। आदरणीय आपके द्वारा बताए सुझाव नोट कर लेती हूँ तथा अस्पष्ट शे'र ठीक करके फिर से दिखाती हूँ।सादर।
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'न चल पाए क़दम इक भी वहाँ से'
इस मिसरे को यूँ कहें:-
'क़दम हिल भी नहीं पाए वहाँ से'
'सँभलने के लिए कुछ वक़्त तो दो
अभी उतरा ही है वो आसमाँ से'
इस शैर का भाव स्पष्ट नहीं, कौन उतरी है?
'दिया वो लाऊँ मैं यारो कहाँ से'
इस मिसरे को यूँ कहें:-
'मैं ऐसी रोशनी लाऊँ कहाँ से'
'मिले 'निर्मल' को तुहफ़े मेह्रबाँ से'
"मह्रबाँ" ऐसे लिखें ।
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