2122—1122—1122—22
रूठ मत जाना कभी दीन दयाला मुझसे
रखना रघुनाथ हमेशा यही नाता मुझसे
हर मनोरथ हुआ है सिद्ध कृपा से तेरी
तू न होता तो हर इक काम बिगड़ता मुझसे
नाव तुमने लगा दी पार वगरना रघुवर
इस भँवर में था बड़ी दूर किनारा मुझसे
जैसे शबरी से अहिल्या से निभाया राघव
भक्तवत्सल सदा यूँ प्रेम निभाना मुझसे
एक विश्वास तुम्हारा है मुझे रघुनंदन
दूर जाना न कोई करके बहाना मुझसे
जानकी नाथ कृपा आप बनाए रखना
नाथ नाराज रहे लाख ज़माना मुझसे
आपके नूर से रोशन है यहाँ हर ज़र्रा
हूं तो ‘खुरशीद’ मगर होता उजाला मुझसे ?
मौलिक व अप्रकाशित
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नाव तुमने लगा दी पार वगरना रघुवर
इस भँवर में था बड़ी दूर किनारा मुझसे
जैसे शबरी से अहिल्या से निभाया राघव
भक्तवत्सल सदा यूँ प्रेम निभाना मुझसे
वाह बहुत खूब आदरणीय खुर्शीद जी बेहद उम्दा शब्द.....बधाई हो !
आ० खुर्शीद जी,
Bahut hi sundar rachna hai.Har shabd dil ko chuta hai. Hardik badhi.
आ0 भाई खुर्शीद जी , बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल हुई है । शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाए ।
आदरणीय खुर्शीद भाई , बहुत बहुत बधाई आपको इस सुन्दर रचना पर ! सादर
बहुत खूब ...इस ख़ास ग़ज़ल के लिए बधाईयाँ
आ० खुर्शीद जी
बेहतरीन गजल .
जैसे शबरी से अहिल्या से निभाया राघव
भक्तवत्सल सदा यूँ प्रेम निभाना मुझसे----- इस शेर में कुछ और समय अपेक्षित था शायद . सादर .
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