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हनोज दिल्ली दुरअस्त ( इतिहास-कथा ) - डा0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव

‘सुना है औलिया से आपका बड़ा याराना है ?’

        विजय के उन्माद में झूमते हुए सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक ने अमीर खुसरो से कहा I बादशाह की फ़ौज युद्ध में विजयी होकर दिल्ली की ओर वापस हो रही थी I सुल्तान तुगलक एक लखनौती हाथी पर सवार था I अमीर् खुसरो बादशाह के बगलगीर होकर दूसरे हाथी पर चल रहे थे I

‘तौबा हुजुर ---‘ खुसरो ने चौंक कर कहा “आप भी लोगो के बहकावे में आ गए सुल्तान I वह मेरे पीर-ओ-मुर्शिद हैं I मै उनका अदना सा शागिर्द हूँ I ’

‘तो क्या सचमुच तुम दोनों में बस यही सम्बन्ध है इसके अलावे और कुछ नहीं ?’ –बादशाह ने व्यंग से कहा I

‘और क्या सम्बन्ध हो सकता है हुजूर, वह औलिया है फ़कीर है अल्लाह के बन्दे है I मेरा उनसे और क्या सम्बन्ध हो सकता है I’

‘पर माँ-बदौलत ने सुना है तुम दोनों साथ-साथ सोते हो I’-बादशाह के चेहरे पर कटु मुस्कान थी I साथ आ रहे जिन दरबारी अमीरों ने यह बात सुनी ,वह बेसाख्ता हंस पडे I उन्हें बादशाह की मौज का पता चल गया I

‘आपने सच सुना है, हुजूर I  मै जब दिल्ली में होता हूँ तो उनके पास ही रहता हूँ और सोता भी हूँ I

      इस स्पष्ट उत्तर से बादशाह को फिर आगे कुछ कहना उचित नहीं जान पड़ा I कुछ देर चुप रहकर उन्होंने फिर खुसरो से कहा –‘तुम जानते हो खुसरो हम  सूफियो को पसन्द नहीं करते I तुम में भी अगर इल्मी शऊर न होता तो हम तुम से भी नफ्ररत करते I

‘हुजूर इस नफ़रत की कोई वजह तो होगी ?’

‘बिलकुल है I सूफी मजारो की पूजा करते है I इश्के-मजाजी से इश्के- हकीकी तक पहुँचने का दावा करते है I यह नामुमकिन भी है और इस्लाम के खिलाफ भी I’

‘सुल्तान हुजूर, आप एक बार निजाम सरकार से मिल लीजिये I वह आपको मुझसे बेहतर समझा पायेंगे I’

‘नामुमकिन ! माँ-बदौलत उनकी सूरत तक नहीं देखना चाहते I’   

        खुसरो चुप हो गए I आगे कुछ कहना सुल्तान की नफरत की आग में आहुति देने जैसा था, पर गयासुद्दीन  को सनक चढ़ चुकी थी I उन्हें अब खुसरो की उपस्थिति भी नागवार लगने लगी I

‘मियाँ खुसरो ---!’ अचानक सुल्तान ने सरगोशी की I

‘हुकुम करे हुजूर ‘

‘अफगानपुर आने वाला है I हमारी  जीत की खुशी में यहाँ मेरे फरजंद  मुहम्मदशाह ने आनन -फानन में एक महल तामीर कराया है I वह वहां हमारे  इस्तकबाल के लिये पहले से मौजूद है I हम और हमारी फ़ौज वहां जश्न मनायेगी I  इस बीच तुम किसी तेज घोड़े पर सवार होकर दिल्ली पहुँचो और अपने निजाम से जाकर कहो कि मा-बदौलत के दिल्ली पहुंचने से पहले वह कही बाहर तशरीफ़ ले जायें I हम उन्हें दिल्ली में अब और बर्दाश्त नही कर सकते I’

       यह खुसरो पर सीधा वार था I पर क्या हो सकता था I सुल्तान का हुक्म था I खुसरो को बुरा तो लगा पर उन्होंने अपने मनोभाव छिपा लिए और प्रकट में विनम्र होकर आज्ञा स्वीकार की –‘जो हुक्म सुल्तान अभी बजा लाता हूँ I‘  

  •                      *                      *

            अफगानपुर का महल बहुत विशाल था I  मुहम्मदशाह ने पिता के स्वागत की पूरी तैयारी कर रखी थी I सुल्तान ने वहां एक बड़ा दरबार लगाया I जीत में प्राप्त धन सैनिक और अधिकारियो में वितरित किये I बेटे को नायब हीरो के हार से नवाजा I दरबार में मदिरा-पान हुआ I रक्काशा के नृत्य हुए I सुल्तान ने उत्साह में आकर आदेश दिया कि महल के इस विशाल प्रांगण में लखनौती हाथियों की एक दौड़ आयोजित की जाये I सब महावत इसकी तैयारियों में लग गए  I देर रात तक  इसी प्रकार जश्न होता रहा I 

      दरबार भंग कर सुलतान तुरंत उस स्थल पर पहुंचे जहाँ शाही भोज के लिए विशाल दस्तरख्वान बिछा था I सुलतान अब बुरी तरह थक चुके थे I  उन्होंने आगे बढ़ते हुए दीवाल का सहारा लिया और ठिठक गए I

‘महल की दीवाले गीली है क्या ?’-सुलतान ने आश्चर्य से चीखते हुए कहा  I

‘अब्बा हुजूर ---‘- मुहम्मद शाह ने तुरंत सफाई दी –‘ अभी नया-नया तामीर  हुआ है I  पुताई भी अभी पूरी तरह सूखी नही है I’

‘हाँ , तभी माँ- बदौलत के हाथ गीले हुए I’- सुल्तान ने संतोष की सांस ली –‘चलो पहले हाथ साफ करते है फिर दस्तरख्वान पर बैठते है I’

      अचानक एक दिशा से तेज हवाये आने लगी  I अफगानपुर में शोर उठा –गजब का तूफ़ान आ रहा है I  सब लोग अपने-अपने घरो में पनाह ले I महल से कोई बाहर न निकले I यह सुनकर सुलतान की सुस्ती काफूर हो गयी I  उन्होंने कड़क कर पूंछा – ‘सब लोग भाग क्यों रहे है ?  यह अंधड़ की आवाजे आ रही है क्या ?’

‘अब्बा हुजूर, आप नाहक फिकरमंद है I’ - मुहम्मद शाह ने पिता को फिर आश्वस्त किया –‘पूरा अफगानपुर जाग रहा है I लोग जश्न मना रहे है तो इधर-उधर भागेगे ही I यह जो अंधड़ की आवाज लगती है यह हाथी-दौड़ की आवाज है I आपके हुक्म की ही तामील हो रही है I’

‘ओह ---तब ठीक है I माँ-बदौलत बेवजह ही फिक्रमंद हो गए थे I’-बादशाह शान्त तो हो गए पर मन में शंका बनी रही I उन्होंने सोचा रात बहुत  बीत चुकी है I कल सुबह ही दिल्ली के लिए कूच भी करना है I आराम की कौन कहे अभी पेट में निवाले तक नही गये I अभी यह मंथन चल ही रहा था कि वजीर ने आकर अदब से सूचना दी –‘हुजूर, दस्तरख्वान सज गया है I सभी मोहतरम आ चुके है I बस अब आप जलवा-अफरोज हों I सुलतान तुरंत उठ खड़े हुए I     

       अंधड़ जैसी आवाजे अभी भी आ रही थी I ‘हाथी-दौड़ चल रही है’ –सुल्तान ने सोचा I

  •                      *                      *

             जिस समय सुलतान दस्तरख्वान पर जलवा अफरोज हुए ठीक उसी समय अमीर खुसरो लंबा सफर तय कर निजामुद्दीन औलिया के खानकाह में पहुंचे I औलिया उस समय गहरी नींद में थे I उनके चेले-चपाटे भी इधर-उधर बेसुध पड़े थे I  घोड़े को खुसरो ने एक पेड़ के नीचे बाँध दिया I पर उनकी  समझ में नहीं आया के वे अपने उस्ताद को जगाएं या उनके उठने का इन्तेजार करे I फजर की अजान होने में अभी कुछ समय बाकी था I खुसरो निजाम के पास जाकर चुपके से लेट गये I कुछ देर सन्नाटा छाया रहा I अचानक निजाम की आवाज सुनायी दी

‘खुसरो बेटा तुम आ गये ?’

‘हां मेरे मौला, मै आ गया I’

‘बड़े बेवक्त आये I सुल्तान ने तुम्हे चैन नहीं लेने दिया I’

‘हाँ, लडाई में फ़तेह हासिल हुयी है I घमंड और बढ़ गया है I’- खुसरो ने थके हुए स्वर में कहा –‘उन्होंने आपके लिए एक पैगाम भेजा है i पर उसे कहते मेरी जीभ जलती है I’

‘हां, वह चाहते है कि उनके आने से पहले मै दिल्ली छोड़ दूं I’

‘मेरे मुर्शिद आप तो सब जानते है I यह सुल्तान बड़ा जालिम है I वह यहाँ आकर आपकी बेइज्जती करे I यह हमें गवारा नहीं I चलिये मेरे पीर, हम दिल्ली छोड़ देते है I’

‘तू मेरी चिंता मत कर खुसरो I मेंरा रखवाला तो मेरा पिया है I लेकिन बादशाह के लिये  --?’

‘बादशाह के लिये क्या निजाम सरकार ?’  

‘हनोज दिल्ली दुरअस्त--- “- निजाम के चेहरे पर गम्भीरता थी I

            इसी समय अजान-ए-फजर की तेज आवाज फिजां में गूँज उठी I अमीर खुसरो को मुख खुला का खुला रह गया I निजाम पीर यह क्या कह रहे हैं – सुल्तान के लिए दिल्ली अभी दूर है I इस जुमले की हकीकत क्या है ? निजाम का इशारा किस तरफ है ? खुसरो अभी सोच ही रहे थे कि निजाम ने पुकारा – ‘चलो खुसरो नमाज पढ़कर आते है I’

  •                      *                      *

          औलिया का खानकाह सजा हुआ था I खुसरो और अन्य शागिर्द पीर-ओ-मुर्शिद के सामने अदब से बैठे थे i निजाम ने कहा –‘खुसरो कुछ नया कहो I आज कुछ सुनने का जी चाहता है I’ खुसरो थके थे और अज्ञात कारणों से कुछ उदास भी लग रहे थे I पर पीर की बात टालना संभव न था  I  उन्होंने पखावज के दो टुकड़े कर एक नया साज ‘तबला’ बनाया था  I  वह धीरे-धीरे उसे बजाने लगे फिर उन्होंने सूफियाना कलाम पेश किया-

   ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल  दुराये नैना बनाये बतियाँ
   कि ताब-ए-हिज्राँ न दारम ऐ जाँ न लेहु काहे लगाये छतियाँ

      तबले की थाप I खुसरो की सोज आवाज I खानकाह का संजीदा माहौल और शास्त्रीय संगीत में ढली स्वर लहरी I सारा वातावरण रूहानी आजेब से भर गया I लोग मस्ती में झूमने लगे I  खुसरो ने जैसे ही आलाप भरा –‘सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ’ - औलिया की आंखो से आंसू झरने लगे I

       इसी समय खानकाह के बाहर भारी शोर सुनायी दिया I लोगो के चीखने और चिल्लाने की आवाजें आने लगी I खुसरो का गान रुक गया I तभी एक शागिर्द बाहर से बदहवास भागता हुआ अन्दर आया और चिल्लाकर बोला –‘गजब हो गया औलिया सरकार, सुल्तान  गयासुद्दीन तुगलक नहीं रहे I अफगानपुर से खबर आयी है कि सुलतान के इस्तकबाल के लिए जो महल मुहम्मदशाह ने बनवाया था वह भयानक तूफ़ान के कारण ढह गया और सुलतान उसके नीचे दब गये I अचानक खुसरो का दिमाग सक्रिय हो उठा I उन्हें ‘हनोज दिल्ली दुरअस्त--- “ का सही अर्थ अब समझ में आया I उन्होंने मन ही मन निजाम के पहुंच की दाद दी I

‘क्या कहते हो बिरादर, महल ढह गया I यह कैसे मुमकिन है I  अभी नया तामीर हुआ था I खुद सुलतान के बेटे ने बनवाया था i’-खुसरो ने आश्चर्य से कहा I

‘मेरे पिया का हर काम निराला I’-निजाम ने आसमान की ओर हाथ फैलाकर कहा I

‘तो क्या तूफ़ान इतना भयंकर था या फिर इमारत कमजोर थी ?’

‘यह तो पता नहीं पर कुछ लोगो का कहना है सुल्तान ने महल के आंगन में हाथी-दौड़ भी करवाई थी I शायद उसकी वजह से महल ढह गया I’

‘तब तो और लोग भी मरे होंगे ‘

‘हाँ बहुत से अमीर-उमरा मारे गये है कुछ घायल है पर खुदा का शुक्र है मुहम्मदशाह साफ़ बच गये है I’

‘पीर बाबा,  यह मुहम्मदशाह को नया महल तामीर करने की क्या सूझी I  इसकी कोई आवश्यकता तो थी नहीं I’

‘पिया की मर्जी तो थी न खुसरो ?’

‘यह हादसा कब हुआ ?’ खुसरो ने समाचार लाने वाले से पूछा I

‘कहते है खाना खाने के बाद सुल्तान हाथ धोने के लिए रुक गए थे

तभी छत टूट गयी I

‘तो क्या और लोग बाहर आ चुके थे ?’

‘हा जो बाहर आ गए थे वह बच गये I’

‘मसलन मुहम्मदशाह --?

‘बेशक ---‘

‘पीर बाबा, यह क्या माजरा है ?’-खुसरो ने निजाम से पूछा I 

पिया की बाते पिया ही जाने और न जाने कोय ‘-इतना कहकर  निजाम गाने लगे - –‘सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ’

       शागिर्द और पीर–ओ-मुर्शिद की आंखे धीरे-धीरे बंद होने लगी I वे रूहानी मस्ती मे झूमने लगे I कुछ सूफियाना बेखुदी में नाचने लगे फिर उनकी आँखों से प्रेम की धारा बहने लगी I

(मौलिक व् अप्रकाशित)                                                                      ई एस -1/436, सीतापुर रोड योजना कालोनी

                                                                                                                         अलीगंज , सेक्टर-ए , लखनऊ 

                                                                                                       मो0  9795518586

                                                                                      

                                                                                   

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 13, 2015 at 11:14am

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , बहुत खूबसूरती से इतिहास की एक घ्टना को बयान किया है आपने , पढ़्ते तक क्या पढ़ने बाद भी बांधे हुये थी कहानी । आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on March 13, 2015 at 9:28am

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर इस रचना की क्या कहूँ सशक्त रचना हुई है, जब मैंने पढ़ना शुरू किया बस पढ़ता ही गया। आखिर तक बाँधे रखती है। बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by Neeraj Neer on March 12, 2015 at 7:37pm

वाह आदरणीय ..... कहानी को जितनी सुरुचिता से आपने प्रस्तुत किया कि बस अपलक पढ़ता ही चला गया .... बहुत सुंदर प्रस्तुति.... भारत भूमि ऐसे संतों से पहले भी भरी थी आज भी भरी है ... अफसोस आसाराम सरीखे लोगों की वजह से आम लोगों का विश्वास डिगता है ॥ 

Comment by Shyam Mathpal on March 12, 2015 at 2:59pm

Aadarniya Dr.Gopal Narayan ji,

Anand Aa gaya . Esa laga ko film chal rahi ho... Kahani ka ant atbhud hai. Kotish badhai. Aabhar.

Comment by Hari Prakash Dubey on March 12, 2015 at 2:27pm

आदरणीय डॉक्टर गोपाल नारायण सर, बहुत सुन्दर सधी हुई सशकत रचना , “पिया की बाते पिया ही जाने और न जाने कोय”.. बहुत बहुत बधाई ! सादर 

Comment by khursheed khairadi on March 12, 2015 at 11:46am

आदरणीय गोपाल नारायण सर ,इस एतिहासिक कथानक को आपकी सशक्त कलम ने सजीव कर दिया है |बहुत बहुत बधाई आपको |सादर अभिनन्दन |

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on March 12, 2015 at 5:47am

रोचक ...सुंदर प्रस्तुति के लिये बधाई ...सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 12, 2015 at 12:39am

एक ऐसी कथा जो अपने वक्त की तमाम बातों को आधार बनाये हुए बढ़ती जाती है. यह भी सही है. उत्तम उत्तम ! 

आदरणीय गोपाल नारायनजी, आपकी इस कथा के सूत्र कई पहलुओं को छूते हुए हैं.

शुभ-शुभ

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 11, 2015 at 10:59pm
अच्छी प्रस्तुति , मुहम्मद शाह ही मुहम्मद बिन तुग़लक़ के नाम से अधिक जाना जाता है ,यह लोगों को समझने में मदद करेगा। इस प्रस्तुति के लिए बधाई , आदरणीय डॉo गोपाल नारायण जी , सादर।
Comment by maharshi tripathi on March 11, 2015 at 10:14pm

इतिहास कथा का इतना खूबसूरत वर्णन ,,,बहुत बहुत बधाई आ.गोपालनारायण जी |

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