2122 2122
पत्थरों पर चल रहा हूँ
रास्तों को छल रहा हूँ 1
लग रहा हूँ आज मीठा
सब्र का मैं फल रहा हूँ 2
कर दिया उनको पवित्तर
यार गंगा जल रहा हूँ 3
अब नहीं ख्वाहिश किसी की
हाँ कभी बेकल रहा हूँ 4
आज इतनी गाड़ियाँ है
मैं कभी पैदल रहा हूँ 5
याद आऊँ, मुस्कुरा दो
वह तुम्हारा कल रहा हूँ 6
मैं डुबोया हूँ खुद ही को
स्वयं का दलदल रहा हूँ…
ContinueAdded by आशीष यादव on January 19, 2023 at 11:56pm — 1 Comment
ऋतु शीत रवानी में अपने
ऊर्ध्वगी जवानी में अपने
चहुँओर सर्द को बढ़ा रही
जीवन वह्निः तक बुला रही
थी जगह जगह जल रही आग
प्रमुदित होकर जन रहे ताप
कौड़े में जैसे उठी ज्वाल
मन मोह लिया इक अधर लाल
रति जैसी जिसकी छाया थी
वह थी समक्ष या माया थी
पहने थे वसन तरीके से
सब सज्जित स्वच्छ सलीके से
कुंतल को उसने झटक दिया
मनसिज प्रसून पर पटक दिया
कितने उद्गार उठे मन में
ताड़ित से कौंध रहे तन…
ContinueAdded by आशीष यादव on January 19, 2023 at 11:10am — No Comments
2122 2122 2122 2122
क्या पता उस लोक में दिखती हैं कैसी अप्सराएँ
किस तरह चलतीं मचल कर किस तरह से भाव खाएँ
कौन सा जादू लिए फिरतीं सभी पर मार देतीं
किस तरह पुचकारती हैं किस तरह से प्यार देतीं
क्या महावर और मेहँदी आँख में काजल अनोखा
केशिनी मृगचक्षुणी हैं सत्य, या उपमान धोखा
किस तरह श्रृंगार रचती किस तरह गेशू सजाएँ
क्या पता कितनी सही है आमजन की कल्पनाएँ
आज देखी थी परी जो हाल कुछ उसका सुनाऊँ
देखता ही रह गया…
ContinueAdded by आशीष यादव on January 19, 2023 at 6:32am — 1 Comment
एक दिन स्वर्ग में घूमते-घूमते
एक जगह रुक्मिणी राधिका से मिली
एक दिन स्वर्ग में……………
सैकड़ों प्रश्न मन में समेटे हुए
श्याम की प्रीत तन पर लपेटे हुए
जोड़कर हाथ राधा के सम्मुख वहाँ
एक रानी सहज भावना से मिली
एक दिन स्वर्ग में …………….
देखकर राधिका झट गले लग गई
साँवरे की महक से सुगंधित हुई
प्रीत की प्रीत में घोलकर मन, बदन
साधना प्रीत की साधना से मिली
एक दिन स्वर्ग में……………
भेँटना हो गया बात होने…
ContinueAdded by आशीष यादव on March 25, 2022 at 1:30pm — No Comments
जय भारत के लोगों की
जय भारत देश महान की
जय जय जय गणतंत्र दिवस की
जय जय संविधान की
जय जय जय जय हिंद
अपनी धुनें बनाई हमने अपना राग बनाया था
जिसमें समता, न्याय, आजादी का संकल्प समाया था
एक अखंडित राष्ट्र के लिए गरिमा भाईचारा से
हमने अपने गीत लिखे थे हमने खुद को गाया था
जय लिक्खी संप्रभुता की जय लोकतंत्र कल्याण की
जय जय जय गणतंत्र दिवस की
जय जय संविधान की
जय जय जय जय हिंद
सूत कातते…
ContinueAdded by आशीष यादव on January 25, 2022 at 11:15pm — 3 Comments
मैं पुलिस हूँ
मैं पुलिस हूँ, मित्र हूँ
मैं आपका ही प्यार हूँ
आपकी खातिर खड़ा हूँ
आपका अधिकार हूँ
मैं पुलिस हूँ
शपथ सेवा की उठाया हूँ करूँगा आमरण
धीर साहस के लिए मैंने किया वर्दी-वरण
जुल्म-अत्याचार से चाहे प्रकृति की मार से
रात-दिन रक्षा करूँगा आपका बन आवरण
मैं अहर्निश कमर कसकर
वेदना में भी विहँसकर
कर्म को तैयार हूँ
मैं पुलिस हूँ
मैं पुलिस…
ContinueAdded by आशीष यादव on January 5, 2022 at 9:23am — 4 Comments
सबसे पहले आपको नाथ नवाता शीश
यही याचना, आपका मिलता रहे आशीष
जीवन मे उत्थान दे मंगलमय नव-वर्ष
नए साल में छूइए नए-नए उत्कर्ष
शुभकामना स्वीकारिये मेरी भी श्रीमान
शुक्ल पक्ष के चाँद सी बढ़े आपकी शान
जैसे इस ब्रम्हांड का नही आदि ना अंत
वैसे ही श्रीमान को खुशियाँ मिलें अनंत
धन-सम्पत से युक्त हों लोभ-मोह से हीन
उनको भी उद्धारिये जो हैं दीन-मलीन
मौलिक एवं अप्रकाशित
आशीष यादव
Added by आशीष यादव on January 1, 2022 at 9:05am — 7 Comments
जहाँ दिखे अँधियार वहीं पर दीप जलाना
छाये खुशी अपार वहीं पर दीप जलाना
अपने मन के भीतर का जो पापी तम है
'अयं निजः' का भाव जहाँ पलता हरदम है
'वसुधा ही परिवार' जहाँ अंधेरे में है
सबसे पहले यार वहीं पर दीप जलाना
जहाँ दिखे अँधियार………………..
मुरझाए से होठों पर मुस्कान बिछाने
छोटी-छोटी खुशियों को सम्मान दिलाने
जिन दर दीप नहीं पहुँचे हैं उन तक जाकर
रोशन करना द्वार वहीं पर दीप जलाना
जहाँ दिखे…
ContinueAdded by आशीष यादव on November 4, 2021 at 2:30pm — 6 Comments
122 2122 2122 2122 2
तेरी तस्वीर होठों से लगा लूँ, जो इजाजत हो।
उसे आगोश में लूँ, चूम डालूँ, जो इजाजत हो।
बहुत नायाब दौलत है तुम्हारे हुस्न की दौलत
तुम्हारा हुस्न तुमसे ही चुरा लूँ जो इजाजत हो ।
नशीले नैन लाली होंठ की यूँ मुझ पे छाई…
ContinueAdded by आशीष यादव on September 24, 2021 at 3:30pm — 8 Comments
कहो सूरमा! जीत लिए जग?
तुम्हें पता है जीत हार का?
केवल बारूदों के दम पर
फूँक रहे हो धरती सारी
नफरत की लपटों में तुमने
धधकाई करुणा की क्यारी
कितना आतंकित है…
ContinueAdded by आशीष यादव on September 2, 2021 at 1:00am — 5 Comments
स्वयं को आजमाने को
तू खुलकर आ जमाने में
बहुत अनमोल है जीवन
गवाँता क्यों बहाने में
नदी के पास बैठा है
दबा के प्यास बैठा है
तुझे मालूम है, तुझमें
कोई एहसास बैठा है
किनारे कुछ न पाओगे
मिलेगा डूब जाने में
तुम्हारे सामने दुनिया
सुनो रणभूमि जैसी है
स्वयं का तू ही दुश्मन है
स्वयं का तू हितैषी है
कहीं पीछे न रह जाना
स्वयं से ही निभाने में
कहाँ दसरथ की दौलत …
Added by आशीष यादव on July 1, 2021 at 2:30am — 4 Comments
रणभेरी बजने से पहले अच्छा है तुम घर जाओ
वरना पीठ दिखाने से तो अच्छा है तुम मर जाओ
कितनी ही आशाएं तुमसे लगी हुई है, टूटेंगीं
कितनी ही तकदीरें तुमसे जुड़ी हुई हैं, रूठेगीं
तेरे पीछे मुड़ जाने से कितने सिर झुक जाएंगे
कितने प्राण कलंकित होंगे कितने कल रुक जाएंगे
उतर गए हो बीच समर तो कौशल भी दिखला जाओ
हिम्मत के बादल बन कर तुम विपदाओं पर छा जाओ
तप कर और प्रबल बनकर तुम शोलों बीच सँवर जाओ
वरना पीठ दिखाने से तो अच्छा है तुम…
Added by आशीष यादव on May 28, 2021 at 12:11am — 7 Comments
याद तुम्हारी क्या बतलाऊँ
कैसे कैसे आ रही है
चलने का अंदाज़ ठुमक कर
मचल-मचल कर और चहक कर
हाथों को लहरा-लहरा कर
अदा-अदा से और विहँस कर
तेरी सुंदर-सुंदर बातें
मन हर्षित है गाते-गाते
मैं कब से आवाज दे रहा
आ जाते हँसते-मुस्काते
तेरे गालों वाले डिम्पल
याद आते हैं मुझको पल-पल
मिसरी में पागे होठों के
नाज़ुक चुम्बन कोमल-कोमल
एक छवि मुस्कान बटोरे
मुझको अपने परितः घेरे
सुंदर सुखद समीर…
एक गजल तेरे होठों पर लिख सकता था
इसकी टपक रही लाली पर बिक सकता था
किंतु सामने जब शहीद की पीर पुकारे
जान वतन पर देने वाला वीर पुकारे
जिसने भाई, लाल, कंत कुर्बान किये हों
सूख चुकी उनकी आँखों का नीर पुकारे
कैसे उन क़ातिल मुस्कानों पर बिकता
कैसे कोमल नाजुक होठों पर लिखता
एक गजल तेरी आँखों पर लिख सकता था
चंचल चितवन सी कमान पर बिक सकता था
पर कौरव-पांडव दल आँखें मींच रहा हो
चीर दुःशासन द्रुपद-सुता की…
Added by आशीष यादव on September 6, 2020 at 8:30pm — 8 Comments
(12122)×4
ये ज़िंदगी का हसीन लमहा
गुजर गया फिर तो क्या करोगी
जो जिंदगी के इधर खड़ा है
उधर गया फिर तो क्या करोगी
तुम्हें सँवरने का हक दिया है
वो कोई पत्थर का तो नहीं है
लगाये फिरती हो जिसको ठोकर
बिखर गया फिर तो क्या करोगी
कि जिनकी शाखों पे तो गुमां है
मगर उन्हीं की जड़ों से नफरत
"वो आँधियों में उखड़ जड़ों से"
शज़र गया फिर तो क्या करोगी
जिसे अनायास कोसती हो
छिपाए बैठा है पीर…
ContinueAdded by आशीष यादव on August 25, 2020 at 2:30am — 6 Comments
उसकी ना है इतनी सी औकात मगर हड़का रहा है
झूठे में ही खा जाएगा लात मगर हड़का रहा है
औरों की बातों में आकर गाल बजाने वाला बच्चा
जिसके टूटे ना हैं दुधिया दाँत मगर हड़का रहा है
जिसके आधे खर्चे अपनी जेब कटाकर दे रहे हैं
अबकी ढँग से खा जायेगा मात मगर हड़का रहा है
आदर्शों मानवमूल्यों को छोड़ दिया तो राम जाने
कितने बदतर होंगे फिर हालात मगर हड़का रहा है
उल्फत की शमआ पर पर्दा डाल रहा है बदगुमानी
कटना मुश्किल है नफरत की रात…
Added by आशीष यादव on August 10, 2020 at 6:36pm — No Comments
2122 2122 2122 2122
वो न बोलेगा हसद की बात उसने पी रखी है
सिर्फ़ होगी प्यार की बरसात उसने पी रखी है
होश में दुनिया सिवा अपने कहाँ कुछ सोचती है
कर रहा है वो सभी की बात उसने पी रखी है
मुँह पे कह देता है कुछ भी दिल में वो रखता नहीं है
वो समझ पाता नहीं हालात उसने पी रखी है
झूठ मक्कारी फ़रेबी ज़ुल्म का तूफ़ाँ खड़ा है
क्या वो सह पायेगा झंझावात? उसने पी रखी है
जबकि सब दौर-ए-जहाँ में लूटकर घर भर रहे हों…
ContinueAdded by आशीष यादव on August 3, 2020 at 12:30pm — 4 Comments
2122 2122 2122 2122
इश्क बनता जा रहा व्यापार पानी गिर रहा है
हुस्न रस्ते में खड़ा लाचार पानी गिर रहा है
चंद जुगनू पूँछ पर बत्ती लगाकर सूर्य को ही
बेहयाई से रहे ललकार पानी गिर रहा है
टाँगकर झोला फ़कीरी का लबादा ओढ़कर अब
हो रहा खैरात का व्यापार पानी गिर रहा है
बाप दादों की कमाई को सरे नीलाम कर वह
खुद को साबित कर रहा हुँशियार पानी गिर रहा है
झूठ के लश्कर बुलंदी की तरफ बढ़ने लगे हैं
साँच की होने लगी…
Added by आशीष यादव on July 30, 2020 at 5:21am — 8 Comments
हे रूपसखी हे प्रियंवदे
हे हर्ष-प्रदा हे मनोरमे
तुम रच-बस कर अंतर्मन में
अंतर्तम को उजियार करो
यह प्रणय निवेदित है तुमको
स्वीकार करो, साकार करो
अभिलाषी मन अभिलाषा तुम
अभिलाषा की परिभाषा तुम
नयनानंदित - नयनाभिराम
हो नेह-नयन की भाषा तुम
हे चंद्र-प्रभा हे कमल-मुखे
हे नित-नवीन हे सदा-सुखे
उद्गारित होते मनोभाव
इनको ढालो, आकार करो
यह प्रणय निवेदित है तुमको
स्वीकार करो साकार करो
मैं तपता…
ContinueAdded by आशीष यादव on June 15, 2020 at 4:30am — 10 Comments
अकेले तुम नहीं यारा
तुम्हारे साथ और भी बात
मुझे हैं याद
कि जैसे फूल खिला हो
तुम हसीं, बिलकुल महकती सी
चहकती सी
मृदुल किरणों में धुलकर आ गई
और छा गई
जैसे कि बदली जून की
तपती दोपहरी से धरा को छाँव देती
ठाँव देती हो मुसाफिर को
कि जैसे झील हो गहरी
कि ये भहरी…
Added by आशीष यादव on April 17, 2020 at 7:09am — 2 Comments
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