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Ajay sharma's Blog (71)

होता रहा नीलाम है ये आम आदमी

सदियों रहा गुलाम है ये आम आदमी 

होता रहा नीलाम है  ये आम आदमी 


रोता है बिलखता है जाता है  बहल फिर
 बच्चों सा ही मासूम है  ये आम आदमी …
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Added by ajay sharma on April 25, 2013 at 9:30pm — 8 Comments

प्यासा था मैं कुछ बूंदों का ...

प्यासा था मैं कुछ बूंदों का, कब सागर भर पीना चाहा,

बस चाहा था दो पल जीना, कब जीवन भर जीना चाहा,

जग को होगा स्वीकार नहीं, ये अपना मिलन मैं शंकित था,

रिश्तों सा कुछ माँगेगा ये प्रमाण हमसे मैं परिचित था,

पर था मुझको विश्वास कभी छोड़ेगा ये जड़ता अपनी,

लेकिन निकला ये क्रूर बहुत दिखला दी निष्ठुरता अपनी,

तुम क्यों विकल्प हो गयी मेरा तुमको ही क्यों चुनना चाहा,

भावुक मन का मैं बोझ उठा कब तक बोलो चलता रहता,

जो गरल बन गया जीवन रस कब तक बोलो पीता…

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Added by ajay sharma on April 17, 2013 at 11:30pm — 7 Comments

हर किसी शख्स को आइना , बनाने वाले ....................

लाख चेहरों को छिपाते हैं, छिपाने वाले, 

तू सबको पहचान ही लेता है, बनाने वाले |



कौन ठोकर पे है किसको सलाम करना है, 

इल्म हर बात का रखते हैं ज़माने वाले |



जब कही सर भी छिपाने की जगह न मिली, 

खूब पछताए मेरे घर को , जलाने वाले |



सच्ची बातें नहीं मरती हैं कभी सच है, 

सच्चे इंसान हो पर, सच को, सुनाने वाले |

 

अपने चेहरे की खो देते हैं वो पहचान "अजय"

हर किसी शख्स को आइना, बनाने वाले |



मौलिक एवं अप्रकाशित …

Added by ajay sharma on January 17, 2013 at 11:00pm — 2 Comments

थकन से चूर मुझसे एक दिन सप्ताह ने बोला

ज़माने को सरल सीधे , नहीं चेहरे सुहाते है 

हैं अब दर्पण वही जिनको , नहीं श्रृंगार भाते हैं 

 
कभी सौगंध पर इक , था चलन सौ बार मरने का 
मगर अब इक कसम निभती नहीं सौ बार खाते है 



वही अब शख्स है मशहूर हर महफ़िल में देखा है 

जिसे बस झूठ और साजिश के सब व्यौहार आते हैं 
 
उसे मंज़ूर कब होंगी फरेब और झूट की दौलत 
वो बन्दा…
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Added by ajay sharma on January 13, 2013 at 11:51pm — 7 Comments

ज़ख्म चेहरे से दिखाना दर्द की है ज़िद पुरानी ............

जब हुई रुसवा तरन्नुम से ग़ज़ल इस ज़िन्दगी की 

आंसुयों ने नज़्म लिखी रख दिया उनवान पानी 



आइनों से शर्त रख दी मुस्कराहट की लबों पे 

इसलिए झूठी ग़मों की कर रहा मैं तर्जुमानी 



और भी अब बढ गयी दुश्वारियां मेरे सफ़र की 

पत्थरों को ढूँढती फिरती मेरी किस्मत दीवानी 



गर ये नादाँ सब्र होती तो मुनासिब था "अजय" …

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Added by ajay sharma on January 7, 2013 at 11:00pm — 3 Comments

चाँद सितारों से लड़ना आसान नहीं

चाँद सितारों से लड़ना आसान नहीं

क्या होगा अब हश्र कोई अनुमान नहीं

वक़्त निभाएगा अपना दायित्व "अजय "

मेरे हांथों में अब कोई सामान नहीं................

.

जो बांटा करता है सबको जीवन रस ,

पीने को बस गरल मिला केवल उसको

जो पथ पर तेरे फूलों का बना बिछौना ,

काँटों का इक सेज मिला केवल उसको

कैसी हैं हम सन्तति , हम पूत कहा के ,

बचा सके इक जननी का सममान नहीं

वक़्त निभाएगा अपना दायित्व "अजय "

मेरे हांथों में अब कोई सामान नहीं…

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Added by ajay sharma on December 31, 2012 at 12:30am — 4 Comments

तुम उजला सन्दर्भ हो , जिसका मैं हूँ वही कहानी...

मैं हूँ बंदी बिन्दु परिधि का, तुम रेखा मनमानी |

मैं ठहरा पोखर का जल, तुम हो गंगा का पानी ||

मैं जीवन की कथा-व्यथा का नीरस सा गद्यांश कोई इक |

तुम छंदों में लिखी गयी कविता का हो रूपांश कोई इक |

मैं स्वांसों का निहित स्वार्थ हूँ , तुम हो जीवन की मानी  ||

धूप छाँव में पला बढा मैं विषम्तायों का हूँ सहवासी |

तुम महलों के मध्य पली हो ऐश्वर्यों की हो अभ्यासी | 

मैं आँखों का खारा संचय , तुम हो वर्षा अभिमानी ||

विपदायों, संत्रासों से मेरा अटूट अनुबंध रहा…

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Added by ajay sharma on December 27, 2012 at 10:30pm — 4 Comments

गीत ग़ज़ल की देह तौलते ,,,,,,,,,,,,,,,,,

बदल गयी नीयति दर्पण की चेहेरो को अपमान मिले हैं !

निष्ठायों को वर्तमान में नित ऐसे अवसान मिले हैं !!

शहरों को रोशन कर डाला गावों में भर कर अंधियारे !

परिवर्तन की मनमानी में पनघट लहूलूहान मिले हैं !!

चाह कैक्टसी नागफनी के शौक़ जहाँ पलते हों केवल

ऐसे आँगन में तुलसी को जीवन के वरदान मिले हैं !!

भाग दौड़ के इस जीवन में , मतले बदल गए गज़लों के

केवल शो केसों में सजते ग़ालिब के दीवान मिले हैं !!

गीत ग़ज़ल की देह तौलते अक्सर सुनने वाले देखा !…

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Added by ajay sharma on December 24, 2012 at 11:00pm — 4 Comments

शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ ||

शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |

शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ || 



सूरज की आँखों में कोहरे की चुभन रही 

धुप के पैरो में मेहंदी की थूपन रही 

शर्माती शाम आई छल गयी बाजारों को 

समझ गए रिक्शे भी भीड़…

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Added by ajay sharma on December 22, 2012 at 10:30pm — 3 Comments

आज मसले खत्म सारे हो गए

आज मसले खत्म सारे हो गए 
हम तुम्हारे तुम हमारे हो गए (1)
दोस्ती पे नाज़ था जिनकी हमें 
लो वही दुश्मन हमारे हो गए (2)
 
मुझको तनहा छोड़कर मझधार में 
धीरे धीरे सब किनारे हो गए  (3)
 
ले लिया जबसे  सहारा आपने मुझसे मेरा  
लग रहा हम बे-सहारे हो गए  (4)  
था यकीं इतना उन्हें मेरी वफ़ा…
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Added by ajay sharma on December 13, 2012 at 10:30pm — 5 Comments

ऐतबार नहीं है

दुश्मन न सही काबिल-ए -ऐतबार नहीं है 
कोई भी हो वतन से जिसे प्यार नहीं है 
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गैरों से भी अपनों से भी खाता है ठोकरें 
वो शख्स जिसे खुद पे अख्तियार नहीं है 
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ज़ालिम वही गुनाह जो करता नहीं कुबूल 
पाता सजा वही जो गुनाहगार…
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Added by ajay sharma on December 13, 2012 at 10:00pm — 3 Comments

जिसको भीड़ सुलभ है जितनी , उतनी ही ज्यादा तन्हाई ,,,,,,,,,,,,,

खुशियों ने ऊँचे दामों की , फिर पक्की दूकान लगायी 

इक तो गाँव अभावों का मैं , और उपर से ये मंहगाई 
 
कुछ टुकड़ों पर ही पंछी ने , सोने का पिंजड़ा स्वीकारा 
क़ैद हुआ जब संगमरमर में , भूल गया सारी अंगड़ाई 
 
एक नहीं जाने कितने ही , सिन्धु रचे मैंने पन्नों पर 
लेकिन जब जब प्यास लगी , बूँद बूँद से ठोकर…
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Added by ajay sharma on December 10, 2012 at 11:12pm — 6 Comments

घर में पलती इसी धूप के साथ पला मैं छाँव हो गया .....................

थकी हुयी शतरंज का, मैं पिटा हुआ इक दांव हो गया 

भाग्य कर्म के घमासान में मैं धरती का घाव हो गया I 
........................................................................................

बचपन में आँगन में खेली तरुडाई में मुंडेरों पे 
घर में पलती इसी धूप के साथ पला मैं छाँव हो गया 
........................................................................................
जब जब बोझ पड़ा अनचाहा जीवन…
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Added by ajay sharma on December 3, 2012 at 10:30pm — 1 Comment

पेट के कहने में फिर हम आ गए

पेट के कहने में फिर हम आ गए 

पीठ पे ढ़ोने शहर , हम आ गए 

माँ ,बहन , भाई , पिता रिश्तें सभी 

छोड़ कर गाँव का घर हम आ गए -----------------

,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

ऑफिस का रिक्शा पापा का और मदिर वो घंटा - घंटी 

अम्मा की हर बात रटी थी हमको बरसों पंक्ति पंक्ति …

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Added by ajay sharma on December 3, 2012 at 9:30pm — 1 Comment

इक पुरानी ग़ज़ल

इक पुरानी ग़ज़ल से आप सब के साथ मैं भी अपने पुराने दिनों की याद कर रहा हूँ, ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 

कर्म के ही हल सदा रखती है कन्धों पे नियति 

पर कभी फसलें मेरी बोनें नहीं देती मुझे 
मेरी देहरी ही बड़ा होने नहीं देती मुझे 
पीर पैरों के खड़ा होने नहीं देती मुझे 
फिर वही आँगन की परिधि में बँट…
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Added by ajay sharma on November 26, 2012 at 12:00am — 3 Comments

meri bheegi palke(n)

तुम भी हो चुप- चुप , और मैं भी हूँ मौन /

जाने फिर बोल रहा कौन //
मिलते थे कहने को हम दोनों नित्य प्रति / 
लकिन संबंधों को शायद ही मिली गति /
तुम ही जब कर सकी कोई आरम्भ नहीं /
मेरे मन को लगा इति का अवलम्ब सही /
देहरी से औप्चारिक्तायों की बंधे रहे  , दोनों के आचरण दोनों के कुंठित मौन //
तुम भी हो चुप- चुप मैं भी हूँ  मौन , जाने फिर बोल रहा कौन //
परिचय के…
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Added by ajay sharma on November 19, 2012 at 11:22pm — 2 Comments

मेरे कमरें के केलेंडर पर

मेरे कमरें के केलेंडर पर नया इतवार आया
लग रहा है बाद अरसा इक नया त्यौहार आया

तंग जेबें और झोला देख कर बाज़ार में
कस दिया जुमला किसी ने देखिये "इतवार आया"

झह दिनों की व्यस्तता की धूप से झुलसी हुई
सूखती सी टहनियों में रक्त का संचार आया

छुट्टियो में भी खुलेंगें कारखानें और दफ्तर
हांफता सा ये खबर लेकर सुबह अखबार आया

मौन कमरों में खिली इन आहटों की धूप से
लग रहा है अजय घर में कोई पुराना यार आया

Added by ajay sharma on November 18, 2012 at 10:30pm — 1 Comment

सिमट के रह गयी किताबों में

सिमट के रह गयी किताबों में ज़रुरत मेरे बच्चों की
लूट के ले गयीं ये तालिमें फुर्सत मेरे बच्चों की

खेल खिलौनें सैर सपाटें किताबों की बातें हैं
दुबक के रह गयी दीवारों में ज़न्नत मेरे बच्चों की

पकड़ के अँगुली जब वो मेरी मुझसे आगे आगे चलते
मुझको भली लगती है ऐसी हरकत मेरे बच्चों की

मेरी उम्र का बोझ उठाये नन्हे नन्हे कन्धों पर
कहने को मासूम दिखे है हिम्मत मेरे बच्चों की

Added by ajay sharma on November 14, 2012 at 10:30pm — 2 Comments

बौने अब आसमान हो ग

 

बौने अब आसमान हो गए ,



कौए हंस सामान हो गए



जिसको देख आइना डरता था पहले



अब वे देखो दर्पण के अरमान हो गए

--------------------



जिन्हें तनिक से हवा लगे तो ,…

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Added by ajay sharma on November 13, 2012 at 11:00pm — No Comments

आग का दरिया

आग का दरिया नंगो पैरों करना पार कहाँ  तक अच्छा 

तन्हाई में सिसकी भरकर रोना यार कहाँ तक अच्छा 
 
माना पुराने पन्नों पर ख्वाहिश ने नयी तारीखें लिख दी 
लेकिन पढना फिर फिर बासी वो अखबार कहाँ तक अच्छा 
 
कच्चे रंगों से मिटटी के घर आँगन रंग कर सोच रहा 
बरसाती मौसम में जिद का ये…
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Added by ajay sharma on November 7, 2012 at 7:00pm — 1 Comment

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