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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s Blog – December 2015 Archive (9)

जतन कछ तो करो पेड़ों भले ही भार जादा अब -(गजल)- लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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सियासत काम कम करती मगर तकरार जादा अब

बुढ़ापा  चढ़  गया  है  या  पड़ी   बीमार  जादा  अब /1



जवानी   क्या   खुदा  ने  दी  फरामोशी  चढ़ी  सर  पर

लगे कम माँ की ममता जो सनम का प्यार जादा अब /2



बहुत था शोर पर्दे में रखे हैं खूब अच्छे दिन

उठा पर्दा तो  ये जाना  पड़ेगी मार जादा अब /3



कहा हाकिम ने है यारो चलेगी सम विषम जब से

हुए खुश यार  निर्माता  बिकेंगी  कार जादा अब /4



जहर लगती है मुझको तो…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 30, 2015 at 11:00am — 4 Comments

झील ठहरी है बहुत वक्त से कंकड़ मारो -( ग़ज़ल ) -लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

2122    1122    1122    22

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प्यार  कहते  हैं  कि  हर  चाव  बदल  देता है

एक  मरहम  की  तरह   घाव  बदल  देता है /1



अश्क लेकर  भी किसी को न  तू रोते दिखना

कहकहा  आँख  का   बरताव   बदल   देता है /2



झील  ठहरी  है  बहुत  वक्त से  कंकड़ मारो

एक  कंकड़   ही  तो   ठहराव   बदल  देता  है /3



अजनवी  सोच  के   यूँ    दूर  न   बैठो  हमसे  

मिलना  जुलना  ही  मनोभाव  बदल  देता   है /4



माँ की ममता से मिली सीख ये  हमको…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 22, 2015 at 11:55am — 22 Comments

माना कि धूप में भी तो साया नहीं बने - गजल (लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’)

2212 1211 2212 12

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पतझड़ में अब की बार जो गुलजार हम भी हैं

कुछ कुछ चमन के यूँ तो खतावार हम भी हैं /1

रखते हैं चाहे मुख को सदा खुशगवार हम

वैसे  गमों  से  रोज ही  दो   चार  हम भी हैं /2

माना कि धूप में भी तो साया नहीं बने

तू देख अपने ज़ह्न में,ऐ यार हम भी हैं /3

तू ही नहीं अकेला जो दरिया के घाट पर

नजरें उठा के देख कि इस पार हम भी हैं /4

जब से  कहा  है आपने  बेताज हो…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 21, 2015 at 11:30am — 20 Comments

घाव खोल कर बैठ न जाना -( ग़ज़ल )-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

ग़ज़ल

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आग लगाई क्या अपनों ने अरमानों के मेले में

बैठ गया जो आँसू  लेकर  मुस्कानों  के मेले में /1



कर के बहाना सब मरहम का दुखती  रग को छेड़ेंगे

घाव खोल कर  बैठ न  जाना  पहचानों  के  मेले में /2



छोड़ गए हैं अपने अकेला एक अपाहिज बोझ समझ

अब्दुल्ला  सा  मन  होता  है  अनजानों  के  मेले में /3



जब तक जेब भरी थी अपनी घर आगन सब अपना था

जेबें   खाली  तो  बदला  सब …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 16, 2015 at 11:43am — 20 Comments

है जनता की समस्या का -( गजल )- लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

नेताई गजल

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सदन में आप गर आओ वतन की बात मत करना

सहोदर  जैसे आपस में  गबन  की बात मत करना /1



उड़ाए  हमने  चुपके   से  लँगोटों  के  लिए सच है

शहीदों के हों नंगे तन कफन की बात मत करना /2



कभी  तुम  बोल  देते  हो  कभी  हम  बोल  देते हैं

चुनावी बात सबकी ही वचन की बात मत करना /3



दिखा  करते  हैं  फूलों सा मगर फितरत  है शूलों सी

गले आपस में मिलने पर चुभन की बात मत करना…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 14, 2015 at 11:36am — 13 Comments

लड़ाई आज सत्ता की -(ग़ज़ल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

1222    1222    1222    1222



भला सच यार कब  वैसे  चुनावी  आस को होना

चुराकर आम के सपने  सदा गुम खास को होना /1



हकीकत  लोकराजों  की  जो नौकर है तो नौकर है

भले कागज की बातों में है मालिक दास को होना /2



लड़ाई आज सत्ता की  बदलती रंग गिरगिट ज्यों

बहाना  फिर  फसादों  का  वही  इतिहास को होना /3



कहाँ  तक  हम  करें  बातें  बना  सौहार्द्र  जीने की

खपा इतिहास  में माथा  खतम विश्वास को होना /4



सुना कल शीत की बरखा बहाकर ले गई सबकुछ

मगर …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 8, 2015 at 10:51am — 2 Comments

वक्त का साया रहे जब - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' ( ग़ज़ल )

4/

2122    2122    2122    212



खुद के  होने  का  जरा  भी  वो पता देता नहीं

अब किसी  को भी  गुनाहों की सजा देता नहीं /1



देवता  तो थे  बहुत  पर ढल गए बुत में सभी

क्यों कहूँ तुझसे की उनको क्यों सदा देता नहीं /2



मर  रही  इंसानियत  है  और  रिश्ते तार तार

क्यों कयामत  का भरोसा  अब खुदा देता नहीं /3



हर तरफ विष देखता हूँ  सुर असुर सब हैं लिए

क्या समंदर मथ भी लें तो अब सुधा देता नहीं /4



वक्त का  साया  रहे जब  मत निठल्ले बैठना

वक्त…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 7, 2015 at 11:41am — 8 Comments

प्रीत घट में से भला फिर - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’ ( ग़ज़ल )

2122    2122    2122    212

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बेसदा  बस्ती  की  रस्मों को निभाना  था हमें

इसलिए  अपनी  जबानों  को  कटाना था हमें /1



या तो कातिल उस नगर में या बचे सब गैर थे

बोझ अर्थी  का स्वयं  की  खुद  उठाना था हमें /2



आग का  दरिया  मुहब्बत ताप आए हम भी यूँ

जो दिलों में जम गया  वो हिम गलाना था हमें /3



भर गए सुनते  थे वो ही चल दिए जो रीत कर

प्रीत घट  में से भला फिर क्या बचाना था हमें /4



रास्ता  यूँ तो  सफर का  जानते …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 6, 2015 at 5:30am — 8 Comments

डरे जो तिमिर से भला क्या मिलेगा - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’(गजल)

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डरे जो तिमिर से भला क्या मिलेगा

लड़ो  जुगनुओं  का  सहारा  मिलेगा /1



हमेशा   नहीं   यूँ   अँधेरा मिलेगा

भले  ही रहे कम  उजाला मिलेगा /2



कहावत है तम की जहाँ बस्तियाँ हों

वहीं   दीपकों   का   बसेरा   मिलेगा /3



चलो  ढूँढते  हैं   उसे   रात  भर अब

कहीं तो तिमिर का किनारा मिलेगा /4



भटक जाओ गर तुम गगन को निहारो

बताता  दिशा   इक  वो  तारा  मिलेगा /5



फकत जागने…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 5, 2015 at 6:00am — 14 Comments

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