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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 171 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का मिसरा 'अमजद इस्लाम अमजद' साहिब की ग़ज़ल से लिया गया है |

"कुछ मेरी आँख में हया भी थी'
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन
2122 1212 22/112

बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस सालिम मख़बून महज़ूफ

रदीफ़ --भी थी

काफिया :-अलिफ़ का(आ स्वर) वफ़ा,दुआ,क़ज़ा,सदा,हवा आदि

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 27 सितंबर दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 28 सितंबर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |

एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |

तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |

शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |

ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |

वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें

नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |

ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

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मंच संचालक

जनाब समर कबीर 

(वरिष्ठ सदस्य)

ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

आदरणीय Dayaram Methani जी आदाब
ग़ज़ल अभी समय चाहती है।
मिसरों में परिपक्वता और रब्त की आवश्यकता है।

नुक़्ते भी नहीं लगाए हैं जहाँ होने चाहिए।

प्यार में दर्द था दवा भी थी
थी वफ़ादार बेवफ़ा भी थी

दर्द था इस में और दवा भी थी
ज़िंदगी इक हसीं सज़ा भी थी
यूँ/ये महब्बत हसीं सज़ा भी थी

प्यार से दिल चुरा लिया मेरा
क्या कहूँ वो बहुत भली भी थी
'भली ' क़ाफ़िया ग़लत है कृपया देखें
" क्या कहूँ वो हसीं बला भी थी "
-
बेवफ़ा तो बहुत मिले हमको,
वो बिना स्वार्थ के वफ़ा भी थी
ख़ूब-सूरत फ़क़त  नहीं थी वो
दिलरुबा मेरी बा-वफ़ा भी थी
-
ज़िन्दगी प्यार के सिवा क्या है
दिल में जब प्यार था दया भी थी

-
बेवजह हम लुटे न थे यूँ ही
क्या ग़ज़ब हुस्न था अदा भी थी
सहीह शब्द है बे-वज्ह 2 21
-

गिरह---नहीं लगी
उस जगह तेज धूप थी फैली
कुछ मिरी आँख में हया भी थी


       // शुभकामनाएँ //

आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है बधाई स्वीकार करें, आदरणीय अमित जी की समझाइश पर ग़ौर कीजियेगा। 

आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' जी, प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

आदरणीय अमित जी, आपकी विस्तृत टिप्पणी एवं सुझाव के लिए बहुत बहुत आभार। आप ऐसा ही मार्ग दर्शन करते रहें। हमें इससे काफी सीखने को मिलता है। एक बार पुन: आपका हार्दिक आभार।

आ. दयाराम जी ,
अमित जी ने विस्तृत चर्चा की है..अत: मैं आपको सहभागिता हेतु बधाई प्रेषित करता हूँ..
साथ ही यह आग्रह भी करूंगा कि अन्य रचनाकार भी अपनी ग़ज़लों पर आपकी और सभी रचनाकारों की टिप्पणी चाहते हैं.. उत्साहवर्धन हेतु आपको टिप्पणी करनी चाहिए 
सादर 

आदरणीय निलेश जी, आपने जो राय दी है वो सही है किंतु मैं उनकी रचना का गुण दोष बताने के काबिल नहीं हूँ। इसलिए संकोच होता है। लेकिन अब आपने कहा है तो अगली बार से मैं सभी की रचना पढ़ूंगा भी और उनसे कुछ सीखने का प्रयास भी करूंगा तथा सभी रचनाओं पर यथा योग्य दाद भी दूंगा।
एक निवेदन है कि हमारे जैसे लोगों का अभ्यास बढ़ाने के लिए इस प्रकार का आयोजन महीने में कम से कम दो बार हो तो अच्छा होगा। आप आयोजकों को कह कर ऐसा करवा सकें तो अच्छा है। हम जो ग़ज़ल लिखते है उस पर टिप्पणी और सुझाव केवल यहाँ ही मिलते है। बार बार लिखेंगे तभी हमारे लेखन में सुधार आयेगा। सादर।

आदरणीय दयाराम जी नमस्कार

ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है बधाई स्वीकार कीजिए

गुणीजनों की इस्लाह क़ाबिले ग़ौर है

सादर

आदपणीय दयाराम जी, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ। बधाई। सुझाव भी अच्छे आए हैं। 

२१२२-१२१२-२२/११२
ज़ीस्त ख़ामोशी थी सदा भी थी
दर्द भी थी वही दवा भी थी (१)

और कितना मैं झेलता उसको
बेहया थी वो बेवफ़ा भी थी (२)

इक झिझक-सी थी उसके चहरे पर
"कुछ मेरी आँख में हया भी थी"(३)

कोई तुमसा नहीं था महफ़िल में
थी वहाँ हूर अप्सरा भी थी (४)

हौसला था दिया जलाने का
और कुछ तेज़ ये हवा भी थी (५)

मुझको तुम पर नहीं बरसना था
सर पे छाई मगर घटा भी थी (६)

क्या करूँ मैं मुझे बता देते
ज़ह्र था पास में दवा भी थी (७)

फिर नया नाम रख लिया होगा
थी वो नूतन वो सायरा भी थी (८)

© सालिक गणवीर
अप्रकाशित एवं अप्रसारित

आदरणीय सालिक गणवीर जी आदाब 

ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है बधाई स्वीकार करें।

२१२२-१२१२-२२/११२

हौसला था दिया जलाने का

और कुछ तेज़ ये हवा भी थी (५)

सुझाव ~

कुछ तो रोग़न चराग़ में कम था

और  कुछ  तेज़ ये  हवा भी थी

रोग़न की जगह हौसला कम था

या हौसले का रोग़न कम था

जैसे भाव भी ले सकते हैं। 

       // शुभकामनाएँ //

आ.सालिक गणवीर साहब,  अच्छी ग़ज़ल कही, आपने ! आदरणीय अमित जी से मैं सहमत हूँ, लेकिन,  जनाब,  सातवें शे'र का आपका ऊला  नहीं जँचा,  जिसमे " मैं" और "मुझे" सर्वनाम एक ही मिसरे आ रहे हैं।

मिसरा यूँ बेहतर होता :

' क्या करूँ मैं तुम्हीं  बता देते'

आठवाँ शे'र मुझे बेहतर लगा!

आदरणीय सालिक जी, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ। बधाई स्वीकार करें

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