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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-142

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 142वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा जनाब बशीर बद्र

 साहब की गजल से लिया गया है|

" फिर उस के बा'द मुझे कोई अजनबी न मिला  "

  1212             1122                 1212             112            

 

मुफ़ाइलुन                     फ़इलातुन           मुफ़ाइलुन                 फ़इलुन/फेलुन

बह्र: मुज्‍तस मुसम्मन् मख्बून मक्सूर

 

रदीफ़ :-  न मिला

काफिया :- ई(आदमी, कभी, वही, भी, सही,  आदि)

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनांक 27 अप्रैल दिन बुधवार को हो जाएगी और दिनांक 28 अप्रैल दिन गुरुवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

 

नियम एवं शर्तें:-

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |

एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |

तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |

शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |

ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |

वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें

नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |

ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

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मंच संचालक

राणा प्रताप सिंह 

(सदस्य प्रबंधन समूह)

ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

आ. संजय शुक्ला जी

बढ़िया गजल के लिए बधाई स्वीकार करें। कबीर सर की इस्लाह के बाद उसमें और निखार आ जाएगा।

सादर

आदरणीय अमित जी, बहुत धन्यवाद

आदरणीय संजय शुक्ल साहब अच्छी गजल हुई बधाई स्वीकारें समर साहब की उम्दा इस्लाह से ग़ज़ल बेहतरीन हो गई |

1212 1122 1212 112

मैं ढूँढता हुआ आया हूँ एक भी न मिला
हो जिसका प्यार ही मज़हब वो आदमी न मिला1

मैं इश्क़ करता हूँ तुझसे मेरा यकीं कर ले
तू प्यार में मेरे अपनी ये दोस्ती न मिला2

वो जिसके साथ में ये ज़िन्दगी हसीन लगे
अभी तलक मुझे ऐसा तो शख़्स ही न मिला3

कमी नहीं है मेरे यार दुश्मनोंं की मुझे
तलाश दोस्त की थी एक बस वही न मिला4

मुझे पता है कि दुनिया ये गोल होती है
दिया था ज़ख़्म मुझे जिसने फिर कभी न मिला5

गुनाहगार हूँ मैं उसकी नज़रों में लेकिन
तलाशी में मेरे दामन में दाग़ भी न मिला6

मेरा नसीब "रिया" जो लिखे उसे कह दे
कलम में अपनी सियाही ये रात की न मिला7

गिरह


जब अपने लोग मिले ग़ैर की तरह मुझसे
"फिर उस के बा'द मुझे कोई अजनबी न मिला"

"मौलिक व अप्रकाशित"

मुहतरमा ऋचा यादव जी आदाब, तरही मिसरे पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

'वो जिसके साथ में ये ज़िन्दगी हसीन लगे
अभी तलक मुझे ऐसा तो शख़्स ही न मिला'

इस शैर के ऊला मिसरे में 'साथ' शब्द के साथ 'में' का प्रयोग उचित नहीं,पहले भी बताया जा चुका है, और सानी मिसरा कुछ और कसावट चाहता है,सुधार का प्रयास करें ।

'मुझे पता है कि दुनिया ये गोल होती है
दिया था ज़ख़्म मुझे जिसने फिर कभी न मिला'

ये शैर भी कसावट चाहता है, प्रयास करें ।

'गुनाहगार हूँ मैं उसकी नज़रों में लेकिन
तलाशी में मेरे दामन में दाग़ भी न मिला'

इस शैर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है, देखियेगा ।

'मेरा नसीब "रिया" जो लिखे उसे कह दे
कलम में अपनी सियाही ये रात की न मिला'

नसीब तो लिखा जा चुका है? सानी में

'कलम' को "क़लम" कर लें ।

गिरह कुछ ख़ास नहीं ।

आदरणीय सर जी, नमस्कार

बहुत बहुत शुक्रिया आपका इतनी बारीक़ी

से हर बात बताने समझाने के लिए, सुधार का प्रयास

किया है कृपया दखियेगा।

सादर

वो जिसके साथ मुझे ज़िन्दगी हसीन लगे
मेरे ख़याल का वो शाहकार ही न मिला3

अगर है गोल ये दुनिया तो फिर बताओ मुझे
बिछड़ के मुझसे मेरा यार क्यों कभी न मिला5

तुम्हारे अश्क़-ए-नदामत से तर हुआ ऐसा
तलाश में कोई दामन में दाग़ ही न मिला6

"रिया" उदास ही दिखती हैं तेरी ग़ज़लें क्यों
क़लम में अपनी सियाही ये रात की न मिला7

गिरह


मैं अपने घर से निकल कर जो शह्र आया तो
"फिर उस के बा'द मुझे कोई अजनबी न मिला"

'तुम्हारे अश्क़-ए-नदामत से तर हुआ ऐसा
तलाश में कोई दामन में दाग़ ही न मिला'

इस शैर को यूँ कर लें:-

'तुम्हारे अश्क-ए-नदामत से धुल गया ऐसा

'किसी को फिर मेरे दामन पे दाग़ ही न मिला'

बाक़ी ठीक हो गए ।

आदरणीय सर जी,

बहुत बहुत शुक्रिया आपका।

बहुत बहतर है, आभार आपका।

सादर

आदरणीयi Richa Yadav जी
सादर अभिवादन
तरही मिसरे पर अच्छी ग़ज़ल कही है आपने। बधाईयाँ स्वीकार करें.उस्ताद जी की इस्लाह के बाद तरही ग़ज़ल दुरुस्त हो गई है।

आ. रिचा जी, गजल का प्रयास अच्छा है। हार्दिक बधाई। थोड़ा और समय दीजिए गजल निखर जायेगा। भाई समर जी का मार्गदर्शन उचित है।

आदरणीय बहुत आभार आपका

सादर

आ. ऋचा जी

 गजल के लिए बधाई स्वीकार करें। कबीर सर की इस्लाह काबिले गौर है। उससे और निखार आ जाएगा।

सादर

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