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आदरणीय साहित्य प्रेमियो,

जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर नव-हस्ताक्षरों, के लिए अपनी कलम की धार को और भी तीक्ष्ण करने का अवसर प्रदान करता है. इसी क्रम में प्रस्तुत है :

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178

विषय : "माँ"

आयोजन 13 सितंबर 2025, दिन शनिवार से 14 सितंबर 2025, दिन रविवार की समाप्ति तक अर्थात कुल दो दिन.
ध्यान रहे : बात बेशक छोटी हो लेकिन 'घाव करे गंभीर’ करने वाली हो तो पद्य- समारोह का आनन्द बहुगुणा हो जाए. आयोजन के लिए दिये विषय को केन्द्रित करते हुए आप सभी अपनी मौलिक एवं अप्रकाशित रचना पद्य-साहित्य की किसी भी विधा में स्वयं द्वारा लाइव पोस्ट कर सकते हैं. साथ ही अन्य साथियों की रचना पर लाइव टिप्पणी भी कर सकते हैं.

उदाहरण स्वरुप पद्य-साहित्य की कुछ विधाओं का नाम सूचीबद्ध किये जा रहे हैं --

तुकांत कविता, अतुकांत आधुनिक कविता, हास्य कविता, गीत-नवगीत, ग़ज़ल, नज़्म, हाइकू, सॉनेट, व्यंग्य काव्य, मुक्तक, शास्त्रीय-छंद जैसे दोहा, चौपाई, कुंडलिया, कवित्त, सवैया, हरिगीतिका आदि.

अति आवश्यक सूचना :-

रचनाओं की संख्या पर कोई बन्धन नहीं है. किन्तु, एक से अधिक रचनाएँ प्रस्तुत करनी हों तो पद्य-साहित्य की अलग अलग विधाओं अथवा अलग अलग छंदों में रचनाएँ प्रस्तुत हों.
रचना केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, अन्य सदस्य की रचना किसी और सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी.
रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना अच्छी तरह से देवनागरी के फॉण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें.
रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे अपनी रचना पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं.
प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें.
नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है. यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
सदस्यगण बार-बार संशोधन हेतु अनुरोध न करें, बल्कि उनकी रचनाओं पर प्राप्त सुझावों को भली-भाँति अध्ययन कर संकलन आने के बाद संशोधन हेतु अनुरोध करें. सदस्यगण ध्यान रखें कि रचनाओं में किन्हीं दोषों या गलतियों पर सुझावों के अनुसार संशोधन कराने को किसी सुविधा की तरह लें, न कि किसी अधिकार की तरह.

आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता अपेक्षित है.

इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं.

रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें. अनावश्यक रूप से स्माइली अथवा रोमन फाण्ट का उपयोग न करें. रोमन फाण्ट में टिप्पणियाँ करना, एक ऐसा रास्ता है जो अन्य कोई उपाय न रहने पर ही अपनाया जाय.

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 13 सितंबर  2025, दिन शनिवार लगते ही खोल दिया जायेगा।

यदि आप किसी कारणवश अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सके है तो www.openbooksonline.com पर जाकर प्रथम बार sign up कर लें.

महा-उत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
"OBO लाइव महा उत्सव" के सम्बन्ध मे पूछताछ

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मंच संचालक

ई. गणेश जी बाग़ी 
(संस्थापक सह मुख्य प्रबंधक)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम परिवार

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Replies to This Discussion

माँ पर गीत

जग में माँ से बढ़ कर प्यारा कोई नाम नही।
उसकी सेवा जैसा जग में कोई काम नहीं।

माँ की लोरी से अधिक मधुर कोई गीत नहीं,
इस धरती पर माँ से बढ़ कर कोई मीत नहीं।

माँ की ममता अजर अमर, होती गुमनाम नहीं,
जग में माँ से बढ़ कर प्यारा कोई नाम नही।

जन्म दिया माता ने जब कितना कष्ट उठाया,
कर्ज बड़ा है उसका पर हमने कुछ न चुकाया।

समझ सको तो समझो माँ में ईश्वर होता है,
सुबह शाम नमन करो इसमें तू क्या खोता है।

शीश झुके माँ के आगे लगता कुछ दाम नही,
जग में माँ से बढ़ कर प्यारा कोई नाम नही।
- दयाराम मेठानी
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

वाह ! 

आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त विषय पर आपने भावभीनी रचना प्रस्तुत की है. 

हार्दिक बधाई स्वीकार करें. 

आदरणीय सौरभ पांडेय जी, प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

आदरणीय दयाराम मैठानी जी प्रदत्त विषय पर आपने बहुत सुंदर रचना प्रस्तुत की है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर

आदरणीय, दयावान मेठानी , गीत,  आपकी रचना नहीं हो पाई, किन्तु माँ के प्रति आपके सुन्दर भाव जरूर प्रकाश मान हुए हैं। ' गीत  का अपना एक विशिष्ट  शिल्प होता है, जिसका निर्वहन आपकी रचना  में नहीं हो पाया !

गीत

____

सर्वप्रथम सिरजन अनुक्रम में,

संसृति ने पृथ्वी पुष्पित की।

रचना अनुपम, 

धन्य धरा फिर,

माँ की ममता से सुरभित की।

मानव, पशु, पक्षी, जीव जगत,

जन्मा कोई या हुआ प्रकट।

सब लोकों को संदर्भ मिला,

जीवन रस धारक गर्भ मिला।

स्वयं संजोकर ही संसृति ने 

अपनी छाया प्रतिबिंबित की।

करवट-करवट तंद्रा छूटी।

पाँव-पाँव पर प्रतिदिन टूटी।

चाहे जितनी भी देह जले,

अनथक श्रम से तब लाल पले।

नित्य दायिनी है, 

वह लागत

नहीं मांगती पय-शोणित की।

जनक कहें यदि देने झापड़,

ममता दे देती है पापड़।

जग कहता ये मूरख कैसा?

अर्थ निकाले भोले जैसा।

जो भी कह दो, 

वो तो माँ है,

सुनती है बस सुत के हित की।

(मौलिक व अप्रकाशित)

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी, अति सुंदर रचना के लिए बधाई स्वीकार करें।

आदरणीय दयाराम मैठानी जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। सादर।

आदरणीय विमलेश वामनकर साहब,  आपके गीत का मुखड़ा या कहूँ, स्थायी मुझे स्पष्ट नहीं हो सका, अन्यथा, आप का 'गीत' सम्पूर्ण है। हार्दिक बधाई  !

आदरणीय चेतन प्रकाश जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। गीत के स्थायी में संप्रेषण के संबंध में पुनर्विचार करता हूं। मेरे विचार से स्थानी का कथ्य स्पष्ट है फिर भी पाठकीय समीक्षा पर विचार आवश्यक है। सादर

आदरणीय मिथिलेश भाई, पटल के आयोजनों में आपकी शारद सहभागिता सदा ही प्रभावी हुआ करती है. 

प्रस्तुत आयोजन के प्रदत्त शीर्षक पर आपने जिस मनःभाव से अपनी रचना प्रस्तुत की है, वह अनुकरणीय है. अवश्य ही इस रचना के लिए घुमड रहे भावों को शाब्दिक करने के क्रम में समीचीन समय नहीं मिल पाया है, लेकिन आपका गहन अभ्यास तथा आपकी सवेदना दोनों ने मिल कर प्रस्तुत रचना को सहज ही बाँध पाने में सफलता पायी हैं.

 

सर्वप्रथम सिरजन अनुक्रम में,

संसृति ने पृथ्वी पुष्पित की।

रचना अनुपम, 

धन्य धरा फिर,

माँ की ममता से सुरभित की .... ...   धरती पर प्रकृति के जैविक प्रस्फुटन का क्या ही अकाट्य कारण प्रस्तुत्त हुआ है. जननी की ही तो माया की व्यवस्था पॄथ्वी का जैविक विस्तार है.  

 

मानव, पशु, पक्षी, जीव जगत,

जन्मा कोई या हुआ प्रकट।

सब लोकों को संदर्भ मिला,

जीवन रस धारक गर्भ मिला।

स्वयं संजोकर ही संसृति ने 

अपनी छाया प्रतिबिंबित की। ............  निस्संदेह  गुण्सूत्र की महिमा का सुन्दर वर्णन हुआ है .. 

 

करवट-करवट तंद्रा छूटी।

पाँव-पाँव पर प्रतिदिन टूटी।

चाहे जितनी भी देह जले,

अनथक श्रम से तब लाल पले।

नित्य दायिनी है, 

वह लागत

नहीं मांगती पय-शोणित की।  ..... ....   सप्त धातु से निर्मित मानवीय देह भी किसी देही के शोणित के पान से नहीं कर नहीं, दान से अपना रचाव पाती है. 

 

जनक कहें यदि देने झापड़,

ममता दे देती है पापड़।

जग कहता ये मूरख कैसा?

अर्थ निकाले भोले जैसा।

जो भी कह दो, 

वो तो माँ है,

सुनती है बस सुत के हित की।  .... ..... .. इसी बंद के विन्यास के आधार पर हमने इस रचना के तुरंता कह पाने की धॄष्टता की है. प्रस्तुत बंद इस गंभीर विषयक प्रस्तुति को सहज ही प्रतिबिम्बित नहीं करता. 

फिर भी आपकी प्रस्तुति और विषयानुरूप रचना प्रस्तुत करने की आपकी क्षमता दोनों स्तुत्य हैं. हार्दिक बधाई स्वीकार करें 

शुभ-शुभ

 

आदरणीय सौरभ सर, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। आयोजन में सहभागिता को प्राथमिकता देते हुए प्रयास किया है। अभी रचना में पुनः पाठ और बहुत सुधार की गुंजाइश है। अभी अभ्यास के क्रम अंतिम अंतरे पर पुनः प्रयास किया है

जनक दृष्टि सम्मुख अंदेशा।
सुत के कल का रेशा रेशा।
जग कह दे शठ मूढ़ अजानी।
बात नहीं ममता ने मानी।
जो भी कह दो,
वह तो माँ है,
सुनती है बस सुत के हित की।

इस प्रयास में संभावना देखने और मार्गदर्शन  के लिए हार्दिक आभार।  सादर।

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आवश्यक सूचना:-

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