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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-100 (भाग-1)

साथियों,
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-100 (भाग -1) अत्यधिक डाटा दबाव के कारण पृष्ठ जम्प आदि की शिकायत प्राप्त हो रही है जिसके कारण "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-100 (भाग -2) तैयार किया गया है, अनुरोध है कि कृपया भाग -1 में केवल टिप्पणियों को पोस्ट करें एवं अपनी ग़ज़ल भाग -2 में पोस्ट करें.....

कृपया मुशायरे सम्बंधित अधिक जानकारी एवं मुशायरा भाग 2 में प्रवेश हेतु नीचे दी गयी लिंक क्लिक करें 

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-100 (भाग -2)

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जनाब भाई योगराज प्रभाकर साहिब आदाब, क़ुर्बान जाऊँ आपकी इस विस्तृत टिप्पणी पर जो आपने अपने मख़सूस अंदाज़ में लिखी,इस समय मेरी आँखें ख़ुशी से नम हैं और 'साहिर' की इज़्म के ये मिसरे याद आ रहे हैं :-

"मुझको इतनी महब्बत न दो दोस्तो,

मैं तो कुछ भी नहीं,

इस क़दर प्यार,इतनी बड़ी भीड़ का,

मैं रखूँगा कहाँ,

इस क़दर प्यार रखने के क़ाबिल नहीं,मेरा दिल मेरी जाँ,

मुझको इतनी महब्बत न दो दोस्तो,

कुछ बचाकर रखो,मेरे कल के लिए,

कल जो बेनाम है, कल जो अंजान है,

मुझको इतनी महब्बत न दो दोस्तो"

आपकी बेपनाह महब्बत को सलाम करता हूँ,जिसने मुझे ज़मीन से आसमान पर पहुंचा दिया,बहुत नवाज़िश,करम,शुक्रिया,मह्रबानी ।

कोई मेरे सिवा न था उसमें
खोल कर दिल दिखा गया है मुझे

आके हुजरे में एक शब कोई 
ख़ुशबुओं में बसा गया है मुझे

वाह वाह वाह । आदरणीय कबीर सर बहुत ही खूब सूरत ग़ज़ल के लिए तहे दिल से बधाई । 

सादर नमन ।

जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,सुख़न नवाज़ी के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।

आदरणीय समर साहब दूसरी ग़ज़ल भी जिंदाबाद हुई है पूरी ग़ज़ल उस्तादी का नमूना है, दूसरा और चौथा शेर बतौरे ख़ास पसंद आया| दाद और मुबारकबाद कबूल कीजिये|

जनाब राणा प्रताप सिंह जी आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।

यह ग़ज़ल भी बहुत ही उम्दा है,

शेर दर शेर भा गया है मुझे 

क्या गिरह खूब आपने बाँधी 

ये हुनर अब लुभा गया है मुझे  

मुहतरम समर कबीर साहब, आपकी ग़ज़ल हम सब के लिए एक पाठ की तरह है, बहुत ही उम्दा ग़ज़ल, बहुत बहुत बधाई।

"दाद मंज़ूम आपसे पाकर

आज तो चैन आ गया है मुझे'

बहुत बहुत शुक्रिया भाई गणेश जी "बाग़ी" साहिब,आपकी महब्बत सर आँखों पर,सुख़न नवाज़ी के।लिये बहुत बहुत शुक्रिया ।

आदरणीय समर भाई नमस्ते, यह ग़ज़ल भी बेमिसाल हुई है| 

ज़िन्दगी थी तो साथ ग़म भी था
अब तो आराम आ गया है मुझे

आके हुजरे में एक शब कोई 
ख़ुशबुओं में बसा गया है मुझे

वक़्त जब इम्तिहान का आया
छोड़ कर वो चला गया है मुझे

कोई मेरे सिवा न था उसमें
खोल कर दिल दिखा गया है मुझे

कहते कहते वो यार जग बीती
आप बीती सुना गया है मुझे

है ये मिसरा सभी के होटों पर
"सब्र करना तो आ गया है मुझे" बहुत खूब | 

बहुत बहुत शुक्रिया बहना आदाब ।

(दूसरा प्रयास)


'ज़िन्दगी-ट्रेक' खो गया है मुझे
'रेलवे-ट्रेक' खा गया है मुझे।


साज़िशों से डरा, मरा देखो
पर्व पर ही रुला गया है मुझे।


आश्वासन मुआवज़ा झेलूं,
सब्र करना तो आ गया है मुझे।


शोक में है वतन, दहन करके
राक्षस क्षोभ दे गया है मुझे।


रावणों से रिहा करो हमको
राहतों से सुला गया है मुझे।


(मौलिक व अप्रकाशित)

जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अभी समय चाहता है,मतले और चौथे शैर में क़ाफ़िया बदल गया है,सहभागिता के लिए धन्यवाद ।

आदाब। गंभीर कमियां इंगित करने व समय देकर हौसला अफ़ज़ाई करने के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब।

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