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पागल मन ..... (400 वीं कृति )

पागल मन ..... (400 वीं कृति )

एक
लम्बे अंतराल के बाद
एक परिचित आभास
अजनबी अहसास
अंतस के पृष्ठों पे
जवाबों में उलझा
प्रश्नों का मेला
एकाकार के बाद भी
क्यूँ रहता है
आखिर
ये
पागल मन
अकेला

तुम भी न छुपा सकी
मैं भी न छुपा सका
हृदय प्रीत के
अनबोले से शब्द
स्मृतियाँ
नैन घनों से
तरल हो
अवसन्न से अधरों पर
क्या रुकी कि
मधुपल का हर पल
जीवित हो उठा
मन हस पड़ा
साथ
आभास हो गया
और आभास
सदा का
साथ हो गया
स्मृतियाँ
अंश हो गई
एकाकी जीवन की
न जाने
किसकी श्वासों से
अपनी श्वासों को
प्राण देने का
प्रयास कर रह है
ये
पागल मन
अकेला


सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on October 16, 2018 at 2:37pm

आदरणीय सुशील सरना जी बेहतरीन सुसज्जित रचना के लिए हार्दिक बधाई

Comment by narendrasinh chauhan on October 16, 2018 at 1:48pm

आदरणीय खूब सुन्दर रचना 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 16, 2018 at 1:39pm

आ. भाई सुशील जी, सुंदर कविता हुयी है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on October 16, 2018 at 12:18pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब,अच्छी कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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