आदरणीय साथिओ,
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आदाब। अभी शाम को यह मारक क्षमता वाली उम्दा विचारोत्तेजक रचना पढ़कर धन्य हुआ। अपनी राय बनाने के बाद अधोलिखित टिपप्णियों का अध्ययन कर स्वाभ्यास हेतु पुनः दो बार रचना पढ़कर पंक्ति-दर पंक्ति ध्यान देकर सीखने की कोशिश की। एक या दो सामान्य या संयुक्त वाक्य-विन्यासों में सारगर्भित संदेश व चिंतन-मनन-उत्प्रेरित करते कथोपकथन व समापन पंचपंक्ति विषयांतर्गत बेहतरीन सम्प्रेषण युक्त बन पड़े हैं। हार्दिक बधाइयाँ और आभार मंच संचालक महोदय मुहतरम जनाब योगराज प्रभाकर साहिब। सोच यह रहा था कि क्या "जिहाद" का जिक्र किये बिना भी वही बात कही जा सकती है? ... क्योंकि इस देवभूमि में जन्में हम भारतीयों के साथ विदेशों में किसी न किसी रूप में 'दोयम दर्ज़े' वाला बर्ताव होता देखा/सुना/पढ़ा गया है! दो सगे भाइयों के भारतीय और विदेशी नागरिकता के चलते ऐसा अहसास उन्हें भी कभी न कभी कराया जाता है! इस रचना के सभी ख़ास संवादों की व्याख्या की जा सकती है, जहां कड़वी हक़ीक़तें कहे-अनकहे में बाख़ूबी सम्प्रेषित की गई हैं; जहां लेखनी हमें प्रशिक्षित करती है! अंतिम दोनों संवाद-युग्म रचना के उद्देश्य को मकाम पर पहुंचाते हैं! शीर्षक तो बेहतरीन "टॉर्च" माफ़िक रौशनी रचना पर फैला ही रहा है। सादर हार्दिक आभार।
रचना के मर्म तक पहुँचकर उसकी सराहना करने हेतु तह-ए-दिल से आपका शुक्रिया अदा करता हूँ भाई उस्मानी जी. जिहाद शब्द के बारे में में ऊपर अर्ज़ कर चूका हूँ.
शुक्रिया प्रतिक्रिया हेतु।
दरअसल 'जिहाद' शब्द पढ़कर पाठक इस विषय पर आगे और संवादों की अपेक्षा करने लगता है! अधिकतर सामान्य पाठक इस शब्द के मायने या उपयोग के बारे में "वायरल ग़लत जानकारी" ही रखते हैं। यहां सीमा पर कथोपकथन हो रहा है क्या? या सीमा का संदर्भ अन्यत्र लिया गया है? मुझे ऐसा लगा के शुरू के संवाद या तो कम किये जा सकते हैं, या उन्हें और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है कुछ जोड़कर, सामान्य संवेदनशील पाठकों के लिए।
जिहाद शब्द को जिस तरह देश विरोधी ताकतों द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है, मैंने उसे ही आगे बढाया है। बात को पूर्वधारणाओं से उठ कर देखो भाई उस्मानी जी। आपकी सूचना के लिए बता दूँ कि जिहाद शब्द के असली अर्थ मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। पाकिस्तानी अधिकृत कश्मीर के बारे में यदि आप जानते (जहाँ कि टेरर केम्प चल रहे हैं) तो आप सीमा वाली बात न पूछते। मैंने जो भी लिखा है बहुत जिम्मेवारी से लिखा है।
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी आदाब,
अद्भुत ,बेजोड़ और बेमिसाल लघुकथा । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक आभार आ० मोहम्मद आरिफ जी.
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी , काफी जानकारी देती लघु - कथा के लिए हार्दिक बधाई , सादर।
रचना को समय व मान देने हेतु हार्दिक आभार आ० डॉ विजय शंकर जी.
आतंकवाद जैसे ज्वलंत मुद्दे पर क्या शानदार लघुकथा कही है सर। पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। आपकी बात से सहमत हूँ, आतंकवाद धंधा भी है। बहुत बारीक़ी से आपने इसकी कलई खोली है :
1. नमाज़ के वक़्त सफ़ एक और खाने के वक़्त अलग-अलग?
2. तभी तो जानबूझकर हमारी ड्यूटी लगा दी पखाने साफ करने की।
3. बड़े कमांडर के बच्चे कनाडा में पढ़ रहे हैं और छोटे वाले के इंग्लैंड में।
सबसे अधिक ख़ुशी मुख्य पात्रों के चयन को देखकर हुई। आतंकवाद पर इतनी सकारात्मक लघुकथा कहना आप ही के वश की बात थी। आस्था को राष्ट्र के सन्दर्भ में देखना सुखद रहा। शीर्षक हमेशा की तरह जानदार। इस दिल ख़ुश कर देने वाली लघुकथा के लिए दिल से ढेर सारी बधाई स्वीकार कीजिए सर। सादर।
दिल से शुक्रिया भाई महेंद्र कुमार जी, जीते रहिए।
आस्था
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सरकार गिर गई। निवर्तमान प्रधानमंत्री महामहिम को अपना इस्तीफा सौंपने की घोषणा कर सदन से बाहर आये। निकास-द्वार पर उनके एक पुराने मित्र मिल गए।निवर्तमान प्रधानमंत्री छूटते ही बोले,
'अरे भई! अगर आपने एक वोट दे दिया होता,तो मेरी सरकार नहीं जाती।'
मित्र मुस्कुराये,ठमके और आगे बढ़ गए। निवर्तमान जी जैसे पार्श्व में चले गए। सदन में बहस का जबाब देते हुए उन्होंने कहा था, "गर मैं गलत हूँ, तो मेरी पार्टी कैसे गलत होगी या गर पार्टी गलत है, तो मैं कैसे सही हो सकता हूँ?'
इस पर सदन में उनके मित्र संसद मुस्कुराये थे। शायद उन्होंने इसे अपनी उस बात का जबाब माना था कि-आप गलत दिशा में जा रहे हैं,गुरूजी। निवर्तमान जी को वे(मित्र) प्रायः गुरूजी कहा करते थे। निवर्तमान जी सोचने लगे कि यह शायद मत की बात नहीं है,आस्था का है; अपनी-अपनी आस्था का। और वे भी आगे बढ़ गए।
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"मौलिक तथा अप्रकाशित"
एक ही पंक्ति को कईं बार पढ़ा और हर बार नया अर्थ मिला।
पाठक को विचारशून्यता से निकाल कर विचारों के सैलाब में उतरने को मजबूर करती कथा। बधाई
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