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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-85

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 85वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब फ़िराक गोरखपुरी  साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|

"ये ग़म कहाँ कहाँ ये मसर्रत कहाँ कहाँ "

221    2121     1221     212

मफऊलु फाइलातु मुफाईलु फाइलुन

(बह्र:  मुजारे मुसम्मन अखरब मक्फूफ़ )

रदीफ़ :- कहाँ कहाँ 
काफिया :- अत (मसर्रत, कीमत, जीनत, दौलत, वहशत, दहशत आदि)
 

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 28 जुलाई दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 29 जुलाई दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

 

नियम एवं शर्तें:-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
  • एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
  • तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
  • शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
  • ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
  • नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
  • ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 28 जुलाई दिन शुक्रवार  लगते ही खोल दिया जायेगा, यदि आप अभी तक ओपन
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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह 
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

आ. भाई रवि जी इस बेहतरीन गजल के लिए हार्दिक बधाई ।

ठोकर उठाई मेरी शराफत कहाँ कहाँ |
तेरे लिए खरीदी अदावत कहाँ कहाँ |


पर तुम न हो सके मेरे मुझको ज़खम दिया
हँस हँस गले लगाई खलाअत कहाँ कहाँ |


वो कौन सी घड़ी थी जो मुझको भुला दिया
तेरे लिए उठाई नदामत कहाँ कहाँ |


मैंने चुना है प्रेम को पूजा किया सदा
तूने मुझे तो दी है हिक़ारत कहाँ कहाँ |

जो भी मिली उठाइये मत तौलिये हुजूर
"ये ग़म कहाँ कहाँ ये मसर्रत कहाँ कहाँ "

दर पे खड़े हैं देर से मुझको गले लगा
वहशत कहाँ कहाँ है ये उल्फत कहाँ कहाँ |
(मौलिक / अप्रकाशित)

मैंने चुना है प्रेम को पूजा किया सदा
तूने मुझे तो दी है हिक़ारत कहाँ कहाँ | बहुत ही प्यारा और प्रेम में साहस का शे'र ।

ठोकर उठाई मेरी शराफत कहाँ कहाँ |
तेरे लिए खरीदी अदावत कहाँ कहाँ | क्या कहने,क्या कहने । बहुत ही बढ़िया मतला कहा है आपने।
शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए आदरणीया छाया शुक्ल जी । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।

//ठोकर उठाई मेरी शराफत कहाँ कहाँ |
तेरे लिए खरीदी अदावत कहाँ कहाँ |// ठोकर खाना या ठोकर लगना तो सुना था, यह ठोकर उठाई क्या हुआ? 


//पर तुम न हो सके मेरे मुझको ज़खम दिया
हँस हँस गले लगाई खलाअत कहाँ कहाँ |// आपने ज़ख्म को 12 की तरह बाँधा है जभी इसका वज़न 21 होता है.  

//वो कौन सी घड़ी थी जो मुझको भुला दिया 

तेरे लिए उठाई नदामत कहाँ कहाँ |// अच्छा शेअर है. 


//मैंने चुना है प्रेम को पूजा किया सदा 
तूने मुझे तो दी है हिक़ारत कहाँ कहाँ |// पूजा "किया" नहीं "की" जाती है 

//जो भी मिली उठाइये मत तौलिये हुजूर 
"ये ग़म कहाँ कहाँ ये मसर्रत कहाँ कहाँ "// गम और मसर्रत के साथ "मिली" का प्रयोग गलत है. 

//दर पे खड़े हैं देर से मुझको गले लगा 
वहशत कहाँ कहाँ है ये उल्फत कहाँ कहाँ |// दोनों मिसरों में कोई रब्त नहीं है. पहले मिसरे में "खड़े हैं" (बहुवचन) के साथ "मुझको" (एकवचन) का होना भी दुरुस्त नहीं है छाया शुक्ला जी, बहरहाल आयोजन में सहभागिता हेतु अभिनन्दन स्वीकार करें.   

आदरणीय मेरे प्रयास की सराहना करना और त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाने के लिए आपका हार्दिक आभार ! 

मोहतरमा छाया शुक्ला जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,लेकिन ग़ज़ल अभी बहुत समय चाहती है ।।
मतले के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,'ठोकर'उठाई नहीं ,खाई,या लगाई जाती है ।
दूसरा शैर भी मफ़हूम के लिहाज़ से मुह्मिल है, ऊला मिसरे में 'ज़खम'ग़लत है,सही शब्द है "ज़ख़्म",सानी मिसरे में 'खलाअत'कौन सी भाषा का शब्द है?और इसका क्या अर्थ है ?

'मैंने चुना है प्रेम को पूजा किया सदा'
इस मिसरे में व्याकरण दोष है ।
गिरह भी सही नहीं है ।
आख़री शैर भी मुह्मिल है, अभी आपको ग़ज़ल के बारे में बहुत अध्यन करने की ज़रूरत है,बहरहाल मुशायरे में सहभागिता के लिए धन्यवाद ।

आदरणीय आप से सीखने की बलवती इच्छा ने इस मुश्किल से लगने वाले रदीफ़ और काफिया पर छोटी सी कोशिश की हूँ |आपने अपना अमूल्य समय दिया इसके लिए तहे दिल से शुक्रिया | आदाब ! 
आदरणीय 
खलाअत * उर्दू भाषा से है मुहम्मद मुस्तफ़ा खान (खा पे चन्द्र बिंदु यहाँ टाइप नहीं हो रहा है )के शब्द कोष से ली हूँ जिसका अर्थ है |
खलाअत = परीशान होना | सादर 

ग़ज़ल के इस प्रयास के लिए बहुत बहुत बधाई आद० छाया शुक्ला जी 

जी, सप्रेम आभार आपका बहन 

मिलती है दर्द की यहाँ  दौलत कहाँ कहाँ

मिलती  है प्यार में भी शिकायत कहाँ कहाँ

दुनिया बदल गई कोई हमको बता गया,

रखती है अब भी सोच वहशत कहाँ कहाँ

कब आज कल बहार हमारे नसीब में,

चलती यहाँ भी तो है तिजारत कहाँ कहाँ

ढूँढें कहाँ से वह भी न मिलता कभी हमें,

पाने को उस करी थी इबादत कहाँ कहाँ

हम को लगा हमेश रहे साथ वो तिरा,

ये अब पता चला कि सियासत कहाँ कहाँ

जब जिंदगी कि रंग मनाने को चल पड़े,

"ये ग़म कहाँ कहाँ ये मसर्रत कहाँ कहा""

मौलिक व अप्रकाशित"

अच्छा प्रयास है मगर बहुत से मिसरे बेबह्र या बेरब्त हो रहे हैं, आयोजन में सहभागिता हेतु अभिनन्दन स्वीकार करें. 

आ मोहन जी
सहभागिता के लिये बधाई,
ग़ज़ल थोड़ा समय और माँग रही है।
सादर

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