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कारपोरेशन की गाड़ी का हूटर बजा और लड़के ने गाड़ी से उतर कर डोर बैल बजाईं, जब मैं घर से बाहर आया तो मल्होत्रा ​​साहिब अपने घर में रखा कूड़ेदान लेकर बाहर आ उस लड़के की तरफ  बढ़ रहे थे ।

"हमारा कूड़ा सुबह सुबह पुराना रेहड़ी वाला ही उठा कि ही ले जाता है" ।

क्योंकि आप तो बहुत देर से आते हैं ।

जब आते हैं तब कोई भी घर नहीं होता "मैने कहा, बच्चे स्कूल व् हम दोनों ड्यूटी जा चुके होते हैं ।

पर वह लड़का अभी भी गेट के पास ही खड़ा था और मल्होत्रा ​​साहिब जा चुके थे ।

मेरी तरफ वह टकटकी लगा कर देख रहा था ।

"साहिब जी, दीवाली" लड़के ने धीरे से सर झुका कर कहा ।

"तुम तो हमारा कूड़ा नहीं उठाते, हम से दीवाली कैसी ........." मुझे पता ही न चला कब मैने इक लंबी तकरीर उस पे कर डाली ।

"नहीं साहिब जी, दीवाली तो बनती है, जो भी देना चाहो, पचास, बीस या दस कुछ तो दो त्यौहार है , साहिब जी"।

मगर फिर मैने ये अचानक ही पूछ लिया, “आप झुकते क्यूँ हो जब मांगते” ।

“मांगेगे तो झुकना ही पड़ेगा, जब हम काम कर लेंगे, तब तो हमारा  हक होगा”। उसने कहा "तनख्वाह तो हम हक से मांगते हैं" लडके ने कहा ।

अगर मांगना है, तो सीधा कैसे खड़ा रह सकते हैं ।

"क्योंकि, ये हमारा हक नहीं, ये सुनते ही मेरा गाँव में बचपन में मांगना भी समझ आने लगा ।

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by नाथ सोनांचली on April 16, 2017 at 11:12am
आद0 मोहन जी सादर अभिवादन, बेहतरीन लघुकथा लगी मुझे, शेष गुणीजन बताएंगे। बधाई
Comment by Samar kabeer on April 15, 2017 at 5:54pm
जनाब मोहन बेगोवाल जी आदाब,लघुकथा का प्रयास अच्छा है,कथानक भी ठीक है,लेकिन कसावट की कमी है,बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Mohammed Arif on April 15, 2017 at 5:53pm
आदरणीय मोहन बेगोवाल जी आदाब, बहुत बेहतरीन ,श्रेष्ठ और एक सच्चाई भी उभर आई इस लघुकथा में । कथानक और शिल्प भी स्तरीय है । हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए ।

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