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काग-भगोड़े और इंद्रधनुष (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

हर बार की तरह इस बार भी अपनी चित्रकला कृति को यूसुफ भाई अपने दोस्तों को दिखाकर व्यंग्य मिश्रित तारीफ़ें सुन रहे थे। कलाकृति में श्वेत-श्याम रंगों में खेत, बादल और एक किशोरी थी जो खड़े होकर रंगीन इंद्रधनुष बनाकर बादलों में छिपे पीले सूरज के गोलार्ध में किरणें बना रही थी। बस यही चर्चा के विषय थे।

मदन ने ठहाका लगाते हुए कहा- "लो खड़ी हो गई फिर नई फसल सतरंगे सपने सँजोए!"

"सतरंगे सपने! इंद्रधनुष भी सूरज की किरणों और पानी की बूंदों पर निर्भर होता है भाई!" लाखन ने कहा।

"हाँ, लेकिन लड़की की ज़िन्दगी में इंद्रधनुष तो उसके आँसुओं से बनता है न?"

"क्या मतलब"

"मर्द रूपी सूर्य की किरणों का लड़की के आँसुओं से परावर्तन या अपवर्तन!"

"ओह! विक्षेपण! सच कहते हो! लेकिन ये इंद्रधनुष तो कुछ ही समय के लिए बनता है न!" लाखन ने चित्र के खेत की ओर संकेत करते हुए कहा- "इस खड़ी फसल के बीच तैनात काग-भगोड़े या बिजूका की तरह होता है मर्द! डटा रहता है लड़कियों की रक्षा और सपनों की खातिर हर वक़्त, हर जगह!"

"लेकिन खड़ी फसल को तो अब ये भी नहीं बचा पाते हैं!"

यूसुफ भाई कभी अपने बनाए चित्र को देखते, कभी दोनों दोस्तों की ओर। फिर एक लम्बी सांस लेकर दोनों दोस्तों से बोले- "ये नई सदी की नई फसल है, काग-भगोड़ों या बिजूकों के भरोसे नहीं, खुद की कर्म-किरणों से जीवन में रंग भरेगी!"

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 7, 2017 at 10:10pm
आदाब मोहतरम जनाब मोहम्मद आरिफ साहिब व जनाब विजय निकोर साहिब अपनी राय से वाक़िफ़ कराने व हौसला अफ़ज़ाई हेतु।
Comment by Mohammed Arif on January 7, 2017 at 9:54pm
आदरणीय शेख शहजाद साहिब आदाब !नारी चेतना और मर्द मानसिकता को रेखांकित करती लघुकथा के लिए ढेरों मुबारकबाद ।
Comment by vijay nikore on January 7, 2017 at 9:41pm

//यूसुफ भाई कभी अपने बनाए चित्र को देखते, कभी दोनों दोस्तों की ओर। फिर एक लम्बी सांस लेकर दोनों दोस्तों से बोले- "ये नई सदी की नई फसल है, काग-भगोड़ों या बिजूकों के भरोसे नहीं, खुद की कर्म-किरणों से जीवन में रंग भरेगी!"//

बहुत ही खूबसूरत लघु कथा लिखी है आपने ... बहुत-कुछ सोचने को देती इस रचना के लिए हृदयतल से बधाई, आदरणीय भाई शेख़ उस्मानी जी। 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 7, 2017 at 9:07pm
रचना पटल पर समय देकर अनुमोदन व प्रोत्साहित करने के लिये तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मोहतरमा सीमा मिश्रा साहिबा, मोहतरम जनाब महेन्द्र कुमार साहब, जनाब समर कबीर साहब, जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' साहब, जनाब डॉ. आशुतोष मिश्र साहब और जनाब मिथिलेश वामनकर साहब। पाठकों की सुविधा के लिये 'बिजूका'को कोष्ठक में न देकर या लगाकर लिखा। मुझे ऐसा भी लगा कि काग-भगोड़े और बिजूका बनाने की प्रक्रिया में कुछ अंतर है शायद! मार्गदर्शन निवेदित।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 7, 2017 at 5:59pm
आदरणीय शेख जी इस विधा पर तो आपको जबर्दस्त महारत है शानदार सन्देश वर्तमान का सटीक चित्रण करती इस शानदार लघु कथा के लिए ढेर सारी बढ़ाई स्वीकार करिये सादर
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 7, 2017 at 4:17pm
बहुत ही अच्छी लगी आपकी ये लघु कथा।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 7, 2017 at 2:50pm

आदरणीय उस्मानी जी, बढ़िया लघुकथा लिखी है. हार्दिक बधाई. काग-भगोड़ों या बिजूकों में से एक शब्द का प्रयोग क्या ज्यादा उचित नहीं होता? सादर 

Comment by Samar kabeer on January 7, 2017 at 2:42pm
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,बहुत अच्छी लगी आपकी लघुकथा,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Mahendra Kumar on January 7, 2017 at 1:15pm
आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी, बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है आपने। कहने का अन्दाज़ भी शानदार है। मेरी तरफ से ढेरों बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।

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