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गुमनामियों में खो गये कुछ लोग हार के- शिज्जु शकूर

फ़ैज़ साहब की ज़मीन पर एक कोशिश

221 2121 1221 212
गुमनामियों में खो गये कुछ लोग हार के
कुछ आ गये वरक़ पे फ़साना-निगार के

सपने तमाम पलकों से मैंने उतार के
लौटा दिये हयात को लम्हे उधार के

बेचैनियाँ मिली मुझे तेरी तलाश में
तुझको ही खो दिया तेरी आर्ज़ू में हार के

काँटों के चुभते ही मैं हक़ीकत में आ गया
खुश था मुग़ालतों की वो घड़ियाँ गुज़ार के

अपनी जबाँ से जिसने जलाई हैं निस्बतें
मा’ने बता रहे हैं वही इन्कि़सार के

पत्थर से जैसे रौशनी टकरा के रुक गई
धारे पकड़ लिये किसी ने आबशार के

मैं शाम तक भटकता रहा शहर भर मगर
मुझको मिले न पल मेरे ही इख़्तियार के

निस्बतें= रिश्ते, इन्किसार= नम्रता, आबशार= झरना, वरक़= पन्ना
फ़साना-निगार= कहानीकार

-मौलिक,अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 28, 2015 at 7:30pm
बहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय विजय निकोर सर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 28, 2015 at 7:29pm
बहुत बहुत शुक्रिया जान गोरखपुरीजी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 28, 2015 at 7:29pm
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश भाई

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 28, 2015 at 7:28pm
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब समर साहब आपके सुझावों को ध्यान में रखूँगा

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 28, 2015 at 7:28pm
आदरणीय जयनित भाई बहुत बहुत शुक्रिया
Comment by vijay nikore on December 16, 2015 at 2:12pm

गज़ल बहुत अच्छी लगी, आदरणीय शिज्जु जी। बधाई।

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on December 15, 2015 at 3:08pm
बहुत शानदार गजल।दाद ही दाद।बहुत दिनों बाद नयापन लिए अच्छी ग़ज़ल मिली कई शेर तो बेइंतिहा खूबसूरत हुये है..आबशार और इंकिसार वाले शेर की जितनी तारीफ़ करूँ कम है..एक शेर को थोडा सा बदलने की गुस्ताखी कर रहा हूँ सर..देख लीजियेगा..

सपने तमाम पलकों से मैंने उतार के
लौटा दिये हयात को 'जेवर' उधार के

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 15, 2015 at 12:36am

आदरणीय शिज्जु भाई जी, शानदार ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. 

Comment by Samar kabeer on December 13, 2015 at 10:59pm
जनाब शिज्जु शकूर जी,आदाब,फ़ैज़ साहिब की ज़मीन में आपने अच्छी ग़ज़ल कही है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें ,कुछ मिसरों में बयान साफ़ नहीं हैं ,इसकी तरफ़ ख़ुसूसी तवज्जो दें ,एक मिसरे की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा :–

"तुझको ही खो दिया तेरी आर्ज़ू में हार के"

इस मिसरे में लय बाधित हो रही है,देख लीजियेगा ।
Comment by जयनित कुमार मेहता on December 13, 2015 at 6:31pm
शानदार ग़ज़ल, आदरणीय शिज्जु शकूर जी।

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