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वे दिन भी भले थे...

फूल से दिन खिले थे
साँझ गुलशन सी रही
खुशियों का चलन था
अब विरानी भली

वे दिन भी भले थे
ये साँझ भी है भली

  .......
छूटना था छूट गये
रंग कच्चे प्रेम के
चाशनी ना थी घनी
हम तो पगे , तुम ना पगे

वे दिन भी भले थे
ये साँझ भी है भली

 ......
हिल रहे थे मिल रहे थे 

सुख सपने सब खिल रहे थे

दुध जल से मिल रहे थे
घुलकर एक ही बने

वे दिन भी भले थे
ये साँझ भी है भली

.....
जुग जैसे दिन अब बीते
पाते खोते मन भी रीते
सगों ने किया  किनारा
अलग बहे नदी जल धारा

वे दिन भी भले थे
ये साँझ भी है भली

 .......
मौलिक और अप्रकाशित

Views: 627

Comment

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Comment by kanta roy on December 4, 2015 at 11:33pm

आभार आपका  आदरणीय शहज़ाद जी      

Comment by kanta roy on December 4, 2015 at 11:33pm

सार्थक मार्गदर्शन युक्त प्रतिक्रिया देने हेतु आभार आपका  आदरणीया  राजेश कुमारी जी      जी। 

Comment by kanta roy on December 4, 2015 at 11:32pm

आभार आपका  आदरणीय श्याम नारायण     जी।

Comment by kanta roy on December 4, 2015 at 11:31pm

आभार आपका  आदरणीयमिथिलेश    जी। 

Comment by kanta roy on December 4, 2015 at 11:30pm

 सार्थक मार्गदर्शन युक्त प्रतिक्रिया देने हेतु आभार आपका  आदरणीय सुशील सरना   जी। 

Comment by kanta roy on December 4, 2015 at 11:29pm

 आभार आपका  आदरणीय दिग्विजय  जी। 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 26, 2015 at 8:00pm
सम्मान्य वरिष्ठजन की टिप्पणियों से मुझे भी बहुत कुछ सीखने को मिला। आदरणीया Kanta Roy जी , 'सांझ' को बहुत बढ़िया तरीके से परिभाषित करती बेहतरीन भाव पूर्ण रचना बन पड़ी है। बहुत बहुत बधाई आपको।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 26, 2015 at 10:16am

रचना बहुत  खूबसूरत हो जायेगी सुझावों  को अमल में लाने के बाद आ० कांता जी अभी दिल से बहुत- बहुत बधाई लीजिये 

Comment by Shyam Narain Verma on October 24, 2015 at 10:07am

बहुत  सुंदर और भावपूर्ण रचना  हुई है | हार्दिक  बधाई 

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 22, 2015 at 11:46pm

ये प्रस्तुति और समय चाहती है, यथोचित संशोधन पश्चात् पुनः उपस्थित होता हूँ सादर 

कृपया ध्यान दे...

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