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बड़ा ख़राब जमाना आ गया है , अब घर में विधर्मी नौकर रख लिया है , कौन खायेगा , पियेगा उसके घर । राधा ऊँचे स्वर में अपने पड़ोसन को बता रही थी ।
" अरे हमसे कहा होता , हमने दिला दिया होता नौकर , कोई कमी है इनकी " । पड़ोसन ने भी हाँ में हाँ मिलायी ।
शाम को बेटी से बात करते हुई राधा ने पूछा " अरे कोई काम वाली मिली की नहीं " ।
" हाँ माँ , मिल गयी है , बहुत सफाई से काम करती है फातिमा " ।
" देखना बेटा , संभाल के रखना , आज कल टिकते नहीं ये लोग , समझी "

मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on August 6, 2014 at 2:33am

बहुत आभार सौरभ जी..

Comment by विनय कुमार on August 6, 2014 at 2:32am

आभार आमोद जी..

Comment by Amod Kumar Srivastava on August 5, 2014 at 10:13pm

सुंदर ... भाव ... 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 5, 2014 at 6:53pm

जातिगत दूषित मानसिकता का ढिंढोरा और मान्यता ऐसी व्यावहारिक !

बहुत खूब भाईजी, इस एक और लघुकथा के लिए बधाइयाँ.

Comment by विनय कुमार on August 5, 2014 at 5:58pm

आभार गिरिराज भण्डारीजी..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 5, 2014 at 5:27pm

आदरणीय विनय भाई , इंसान के दोहरे चरित्र को सुन्दर शब्द मिले हैं ॥ आपको बधाइयाँ ॥

Comment by विनय कुमार on August 5, 2014 at 12:25am

आभार जितेंद्रजी..

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 4, 2014 at 11:21pm

माना जाय तो यह शायद यह इंसानी फितरत ही बनी है. अपने लिए कुछ, दूसरों के लिए कुछ और. बहुत अच्छी लघुकथा, आदरणीय विनय जी बहुत-२ बधाई आपको

Comment by विनय कुमार on August 4, 2014 at 5:53pm

आभार प्रदीप कुमार सिंहजी..

Comment by विनय कुमार on August 4, 2014 at 5:52pm

आभार डॉ गोपाल नारायणजी..

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