आदरणीय सुधीजनो,
"ओबीओ लाईव महा उत्सव" अंक 39 का आयोजन दिनांक 11 जनवरी से 12 जनवरी तक किया गया, जिसका विषय था "सामाजिक समस्याएँ और उनका निराकरण" पिछले 38 आयोजनों कि तरह इस आयोजन में भी रचनाधर्मियों ने बड़े जोश के साथ कलम आज़माइश की ! हालाकि इस आयोजन ने सही रफ्तार पहले दिन तीन पहर बीत जाने के बाद ही पकड़ी तथा दूसरे दिन शाम तक पहुँचते पहुँचते यह आयोजन एक सफल आयोजन की तरह पूर्ण हुआ !
जैसा कि मुंशी प्रेमचंद्र जी नें कहा है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है...और साहित्य राजनीति के पीछे नहीं बल्कि समाज के आगे चलनेवाली मशाल है.. साहित्य यदि मशाल है तो साहित्यकार उस मशाल की लौ को लगातार जलाए रखने का काम करते हैं... ऐसी ही उन्नत कर्तव्यबोध युक्त अवधारणा को ध्यान में रख, इस बार ‘सामाजिक समस्याएँ और उनका निराकरण’ जैसा उद्देश्यपूर्ण विषय - जिसका आकाश बहुत वृहत और हर व्यक्ति के जीवन से हमेशा जुड़ा हुआ है , इस महोत्सव के लिए चुना गया था.
सामाजिक विद्रूपताओं के स्वरूप को विस्तार से सामने लाते हुए रचनाकारों नें समस्याओं के जन्म लेने और पोषण पाने के कारणों के रूप में नैतिक अवमूल्यन, पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण, जनसंख्या वृद्धि, मान्यताओं का रूढ़ियों के रूप में आधुनिक समाज में प्रतिस्थापित हो जाना, भ्रष्ट आचरण आदि को विवेचित किया साथ ही इन समस्याओं के निराकरण की शुरुवात को अपने से ही प्रारम्भ करने की बात कहते हुए ‘हम सुधरेंगे युग सुधरेगा’ की उन्नत धारणा को एक स्वर में आवाज दी.
सामाजिक समस्याओं और उनके निराकरण को विषय बना बहुत ही स्तरीय रचनाएँ इस आयोजन में पढ़ने को मिलीं. समाज से सम्बंधित शायद ही कोई ऐसा पहलू होगा जो इस आयोजन में अछूता रह गया हो ! अतुकांत कविता, छंदमुक्त कविता , द्विपदियाँ , ग़ज़ल, दोहा, गीत, कुण्डलिया छंद, आल्हा छंद जैसी पारम्परिक एवं सनातनी विधा में भी यहाँ रचनाएं प्रस्तुत की गईं. इस आयोजन में कुछ रचनाएं शिल्प और कथ्य के तथ्यात्मक प्रस्तुतीकरण पर कुछ कमज़ोर रहीं तो कई उच्च स्तरीय रचनाओं नें अपनी परिपक्वता से सभी पाठक वृन्दों के मन में घर कर लिया. इस बार विषय से भटकी हुई कतिपय रचनाओं को आदरणीय प्रधान सम्पादक महोदय की कैंची का भी सामना करना पड़ा.
आयोजन की शुरुवात इस बार मुझे अपने ही गीत से करने का सुअवसर मिला, जिसमें मैंने सामाजिक प्रांगण को सँवारने के लिए हाथ में सूरज लेकर आशा और विश्वास की रौशनी को विस्फारित करने की बात कही, रचना पर सभी सुधि पाठकों की आत्मीय सराहना के लिए मैं पुनः शत-शत धन्यवाद प्रेषित करती हूँ.
चौथमल जैन जी ने अपनी रचना में मानवता के भाव को पुनर्स्थापित करने और सभ्य व स्वस्थ समाज को भ्रष्टाचार मुक्त करने की सुन्दर बात कही. रमेश कुमार चौहान जी के उन्नत कथ्य समाहित दोहा प्रयास और विधा सीखने की आश्वस्ति पर मन आश्वस्त हुआ वहीं अखिलेश कुमार श्रीवास्तव जी की नैतिक अवमूल्यन को सामाजिक समस्याओं के मूल में देखती द्विपदीयों पर सामाजिक समस्याओं के कारणों (यथा भौतिकवाद और पाश्चात्य सभ्यताओं का अन्धानुकरण आदि) की समझ को विस्तार देती बृजेश जी, अखिलेश जी और सौरभ जी की सार्थक चर्चा में प्रदत्त विषय की सार्थकता की अनुगूंज सुनायी दी
अशोक कुमार रक्ताले जी की कथ्य समृद्ध, शिल्प पर सुगढ़ दोहावली हो या फिर कल्पना रामानी जी की समस्याओं की गहनता को अपने स्वर में मुखर करती ग़ज़ल, सौरभ पाण्डेय जी का पुरातन सभ्यताओं के परिपेक्ष्य में सही मान्यताओं का रूढ़ियाँ बन आज के बदले समाज में समस्या बन सामने आना प्रस्तुत करता गीत हो, या बृजेश नीरज जी की अतुकांत कविता सम्प्रेषण का एक श्रेष्ठतम उदाहरण स्थापित करती अतुकांत रचना बन कर सामने आना... इस आयोजन की एक उपलब्धि रहे.
पद्यानुरूप न होने पर भी इस बार नादिर खान जी की पहली विषयानुरूप अतुकांत रचना को काव्यकर्मिता पर उन्नत चर्चा का अवसर सुलभ कराती कार्यशाला की अवधारणा को साकार करती उपलब्धि के तौर पर देखा गया..जिसकी सार्थकता नादिर खान जी की अति उन्नत दूसरी अतुकांत प्रस्तुति से पूर्णतः पुष्ट भी हुई. अखंड गहमरी जी की दहेज़ समस्या को मुखर करती रचना, गिरिराज भंडारी जी की समस्या और समस्या समाधान के बीच की दूरी को पैनी नज़र से विश्लेषित करती अतुकांत रचना, भारतीय समाज की पारिवारिक समस्या सास-बहू सामंजस्य को प्रस्तुत करती मीना पाठक जी की अतुकांत रचना, पर्यावरण प्रदूषण के प्रति अपनी संवेदनशीलता को व्यक्त करती शिज्जू शकूर जी की अतुकांत रचना, भ्रष्टाचार को सामाजिक समस्याओं के कारण के रूप में व्याप्त देखती और जनसंख्या नियंत्रण द्वारा समस्याओं के निराकरण को प्रस्तुत करती सत्यनारायणसिंह जी की कुण्डलिया प्रस्तुति हो, या, अरुण निगमजी के आल्हा छंद में सामाजिक विंगतियों को प्रस्तुत करती रचना आदि हो, सभी रचनाओं द्वारा महोत्सव अंक-39 समृद्ध हुआ.
अक्सर देखा यह गया है कि टिप्पणियाँ केवल वे ही लोग दिया करते हैं जिनकी अपनी कोई रचना आयोजन में शामिल होती है, लेकिन ओबीओ के इस महा-उत्सव में अभिनव अरुण जी , अरुण कुमार 'अनंत' जी, महिमा श्री जी आदि ने बिना कोई रचना पोस्ट किए भी रचनाधर्मियों का अपनी सारगर्भित टिप्पणियों से उत्साहवर्धन किया.. लेकिन आप सभी को मंच एक कुशल रचनाकार/गज़लकार के रूप में पहचानता है, अतः प्रदत्त विषय पर कलामआजमाई न करना कहीं न कहीं निराश भी अवश्य कर गया. इन ऑनलाइन आयोजनों में हर बार नये साथी हमारे साथ जुड़ते रहे हैं, इस बार रचनाओं पर गजेन्द्र श्रोतीया जी की सारगर्भित टिप्पणियों नें प्रयास को आश्वस्ति प्रदान की.
इस सफल आयोजन के लिए मैं सभी रचनाकारों एवं पाठकों का तह-ए-दिल से आभार व्यक्त करती हूँ. आयोजन की सफलता के लिए मैं प्रधान सम्पादक महोदय आदरणीय श्री योगराज प्रभाकर जी को सभी रचनाओं पर उनके सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर आशीर्वचनों के लिए और आदरणीय मुख्य प्रबंधक महोदय को उनकी तमाम प्रबंधकीय व्यस्तताओं के बावजूद भी सभी रचनाओं पर मार्गदर्शन और उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद सहित हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित करती हूँ
यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस पूर्णतः सफल आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश यदि किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
सादर
डॉ. प्राची सिंह
संचालक
ओबीओ लाइव महा-उत्सव
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डॉ० प्राची सिंह
आँगन सँवारें हम ज़रा (एक गीत)
सब नीतियाँ पृष्ठों सिमट दम तोड़ती दिखती यहाँ
या, स्वार्थ तक सान्निध्य में इतना गहन दीखे जहाँ
क्यों रीतियाँ काँटों भरी कुछ तो विचारें हम ज़रा...
सूरज हथेली पर लिए, आँगन सँवारें हम ज़रा...
कच्ची उमर के ब्याह की झाँझर कराहे नैन भर,
गठबन्ध की दहलीज पर कंगन चिंघाड़े रैन भर,
घूँघट तले बचपन जले नारीत्व तब संताप है,
नन्ही कली गल-गल मिटे, मातृत्व वह अभिशाप है,
जो लीलती बचपन.. नज़र, उसको उतारें हम ज़रा...
सूरज हथेली पर लिए, आँगन सँवारें हम ज़रा...
क्यों श्राद्ध सा काला समय निष्प्राण छाए फाग में ?
क्यों राक्षसी जबड़ों फँसी दुल्हन झुलसती आग में ?
सिन्दूर की लाली लिए अंगार दहकें चीर में,
काली भयानक रात से रिश्ते फफकते पीर में,
धँसते गए जो कीच में, उनको उबारें हम ज़रा...
सूरज हथेली पर लिए, आँगन सँवारें हम ज़रा...
श्रम-स्वेद की बूँदों नहाया बालपन अभिशप्त है ?
काँटों भरी विषबेल-रस से भी विषैला रक्त है,
कर्कश लगेगा सत्य पर उत्साह नंगे पाँव है,
उफ़ ! स्याह-रंगों से पुता बचपन, सिसकती ठाँव है
कुछ फूल तितली रंग बचपन में उतारें हम ज़रा
सूरज हथेली पर लिए, आँगन सँवारें हम ज़रा..
है हाथ भिक्षा पात्र, कुछ चिथड़े छिपाते देह को
फुटपाथ पर श्वासें कठिन, नज़रें तरसतीं गेह को,
उल्लास ऊषा से लिये हम क्यों न सौंपें रश्मियाँ
सद्यत्न यदि सोद्देश्य हो फिर खुद मिटेंगी भ्रांतियाँ
उथले पड़े अस्तित्व को, आओ निथारें हम ज़रा...
सूरज हथेली पर लिए, आँगन सँवारें हम ज़रा...
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चौथमल जैन
आदर्श समाज
आज किस आदर्श समाज की, करते हो तुम बात |
नफ़रत चारों ओर से जो ,कर रही है घात ||
मानव -मानव से कर रहा ,जात पात की बात |
हिंसा अमानवीयता बिखरी पड़ी ,दिन हो चाहे रात ||
भ्रष्टाचार में लिप्त है , देखो आज समाज |
मानवता की बलि चड़ी ,दुष्कृत में आज ||
सीता ,गीता ,गायत्री पर , गिर रही है गाज |
संत ,महंत भी बड़ा रहे ,दुराचार का राज ||
पान ,बीड़ी ,सिगरेट ,तंबाखू ,खा पी रहे किशोर |
शराब ,गांजा ,अफ़ीम ,चरस , है जिनकी भरमार ||
चोर ,उच्चके घूम रहे , चाहूं और बाजार |
सरल ,सहज और संयमी , हैं लग रहे कतार ||
जात -पात को छोड़ कर ,मानवता को लाना होगा |
मानव के इस सभ्य समाज से ,भ्रष्टाचार मिटाना होगा ||
मीना ,टीना ,चुन्नी ,गुड्डी ,को विश्वास दिलाना होगा |
मानवता फिर स्थापित कर ,स्वस्थ समाज बनाना होगा ||
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रमेश कुमार चौहान
दोहावली
अपने समाज देश के, करो व्याधि पहचान ।
रोग वाहक आप सभी, चिकित्सक भी महान ।।
रिश्वत देना कोय ना, चाहे काम ना होय ।
बने घाव ये समाज के, इलाज करना जोय ।।
भ्रष्टाचार बने यहां, कलंक अपने माथ ।
कलंक धोना आपको, देना मत तुम साथ ।।
रूकता ना बलत्कार क्यों, कठोर विधान होय ।
चरित्र भय से होय ना, गढ़े इसे सब कोय ।।
जन्म भये शिशु गर्भ से, कच्ची मिट्टी जान ।
बन जाओ कुम्हार तुम, कुंभ गढ़ो तब शान ।।
लिखना पढना क्यो करे, समझो तुम सब बात ।
देश धर्म का मान हो, गांव परिवार साथ ।।
पुत्र सदा लाठी बने, कहते हैं मां बाप ।
अधूरी इच्छा पूर्ण करे, जो हो उनके आप ।।
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अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव
नारी की जिम्मेदारी ज़्यादा
फेस बुक टीवी फिल्मों का, असर खराब है भारत में।
वेलेन्टाइन की मस्ती है, उस पर शराब है भारत में॥
युवा पीढ़ी मनमौजी है , आनंद , उन्माद से वास्ता।
जोश तो है पर होश नहीं, मंज़िल का पता न रास्ता॥
प्यार दुलार न नैतिक शिक्षा, सिर पर कोई हाथ नहीं।
संस्कारित हों बच्चे कैसे , बड़े बूढ़ों का साथ नहीं॥
श्वान को साथ सदा रखती हैं , बड़े घरों की चतुर नारी।
बच्चों को पाल रहे नौकर, पश्चिम की नकल हम पर भारी॥
डिब्बे के दूध से पलते बच्चे, माँ के प्यार को तरसे बच्चे।
मिला है जो नौकर आया से, देंगे वही इस देश को बच्चे॥
पोते- पोती, दादा- दादी, दूर - दूर , बिखरा घर बार।
समाज की यही समस्या है, संस्कारहीन लाखों परिवार॥
युवा वर्ग के दिल दिमाग पर, बर्फ जमी पश्चिम की इतनी।
बहू , बेटी , बेटे स्वच्छंद हैं , फूहड़ता फैशन बनी॥
संस्कृति, अपनी भाषा से प्रेम हो, बर्फ पिघलती जाएगी।
नकल की आदत छूटेगी और, अकल भी बढ़ती जाएगी॥
परिवार, समाज की रीढ़ है, समाज देश का है आधार।
माँ की जिम्मेदारी अधिक है, संस्कारित हो घर परिवार॥
अच्छे संस्कार, अच्छा परिवार, तब समाज का हो उद्धार।
नैतिक पतन से हो जाएगा, हर समाज का बंटाढार॥
न बने कोई माँ गांधारी , ना पिता बने धृतराष्ट्र।
दूर समाज की दुर्गति हो, मज़बूत बने यह राष्ट्र॥
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अशोक कुमार रक्ताले
कुछ दोहे
मन दर्पण पर देख लो, गए वर्ष के चित्र |
फिर यह दर्पण तोड़ दो, नए वर्ष में मित्र ||
बेटी से संसार है, समझो मन की बात |
बेटी का रक्षण करे, नवयुग की शुरुआत ||
बिन ब्याहे कैसे रहें, हम तुम मिलकर साथ |
तरुण तनय इस कर्म से, चलें बचाकर हाथ ||
बेटी के अभ्यास में, ब्याह न हो अवरोध |
दो शिक्षा संस्कार भी, हर लो तनया क्रोध ||
मृत्युभोज दशकर्म सब, आवश्यक संस्कार |
निपटाएं संक्षेप में, तो होगा उपकार ||
जाति-पाँति के दायरे, जग की सँकरी राह |
बदलें अपनी सोच को, सबके मन हो चाह ||
बरबस हैं निर्धन कई, धनवानों की मौज |
हाथ बढाकर थाम लो, बढे न अब यह फौज ||
हाथ झूठ का थामकर, लाये थे कल रात |
भोर हुई अब सत्य की, भूलें कल की बात ||
मादकता के लोभ में, नव पीढी बदनाम |
त्याग करें मद का सभी, मदद करे आवाम ||
भ्रष्ट बनाया तन्त्र को, कर-कर के गुणगान |
*निज परिवर्तन लक्ष्य ही, बदले हर इंसान ||
*संशोधित
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सौरभ पाण्डेय
धार थी बहती नदी की शुभ्र निर्मल प्राणदायी
ज़िन्दग़ी का उत्स वोही आज हत-निष्प्राण है !
जो बही सदियों-युगों से एक अविरल धार सुन्दर
बन गयी परिपाटियाँ वो ही समय के घोष-लय पर
संभवों में यह सहज है बन वही कुछ मान्यतायें
रूढ़ियों के रूप में शामिल हुईं निर्घूल्य बन कर
बाँध या अवरोध तक अवधारणा में भी न थे, पर
इस सहज बहती नदी का पाश में तन-प्राण है !
जाह्नवी थी ज्ञान की, विज्ञान की धारा बही थी
यह नदी उद्दात भावों औ’ विचारों से पगी थी
साधना-सामर्थ्य शोधों को निरंतर पुष्ट करते--
ठोस थे अध्याय इसके, दृढ़ किनारों से सधी थी
आज शामिल देखिये नालों बहे उच्छिष्ट सारे
घुल रहे हैं, फिर भला कैसे कहें, कल्याण है ?
हम प्रखर उन्नत विचारों से बनाते साध्य राहें
सोच सामाजिक पुरातन त्याज्य है तो क्यों निबाहें
ज्ञान के हम आग्रही हैं, हम युगों से हैं मनोमय
फिर अशिक्षा या कुधर्मी मान्यताएँ, कर्म चाहें ?
मान्य विद्या और शिक्षा की अमिय जलधार लेकर
इस सतत बहती नदी में घोल दें तो त्राण है !!
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नादिर खान
(1)
अतुकांत कविता
बेटे की सगाई की पार्टी में
नेता जी ने ऐलान किया
शादी मंदिर में होगी
एक जोड़ी कपड़े में
दुल्हन हमारे घर आएगी
शादी सिम्पल होगी
कोई धूम धड़ाका या फ़िज़ूल खर्ची
न करेंगे न करने देंगे
पार्टी में नेता जी ने
खूब वाह-वाही लूटी
उनकी खूब जय-जयकार हुई
सभी लोगों ने दिल से सराहा
घर पहुँचते ही
नेता जी ने सबसे पहले
होने वाले समधी जी को फोन लगाया
देखिये पार्टी की बात अलग है
और घर की अलग
आखिर रिश्ता तो हमें निभाना है
फिर आपसे क्या छुपाना
सिर पे इलैक्शन है
और इलैक्शन के खर्चे
भगवान ही बचाये
वैसे हमें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए
पर जनता की सेवा
वो तो हमारा धर्म है
और आप जानते ही हैं
धर्म- कर्म के मामलों में
हम पीछे नहीं रहते
इसलिये अकाउंट नं एसएमएस कर रहे हैं
पचास लाख ट्रान्सफर कर दीजियेगा
बाकी आप खुद समझदार है
हमारे होनहार लड़के के लिए
न लड़कियों की कमी है
और न ही पैसे देने वालों की
आप सोच समझ कर फ़ैसला कीजियेगा
तीन दिन काफी है आपके लिए
और फोन कट ...
अगले दिन के अख़बार में
नेता जी का कच्चा चिट्ठा
अख़बार के मुख्य पृष्ठ में था
और नेता जी, जेल शोभा बढ़ा रहे थे ।
(2)
अतुकांत रचना
विषय - सामाजिक समस्याएँ और उनका निराकरण
हँसते खेलते बच्चे
दौड़ते भागते लोग
कहीं खुशी, कहीं गम
शिकायतें करते
फरमाइसें थोपते
बराती
सबको खुश रखने की चाह में
स्वयं को झोंकते
एक छोर से दूसरे छोर
दौड़ लगाते
न थकते, न उफ्फ करते
बिना गलती की सज़ा के लिए
हाथ जोड़ते, माफी माँगते
असहाय दुल्हन के पिता
ऊँचे आसन में
डींगे हांकते
दूल्हे के पिता
बराबरी का हक
तलाशते हम सब
जरूरत है देखने की
एक ही चशमें से
परिवार लड़की का हो
या लड़के का
पिता दुल्हन के हों
या दूल्हे के ।
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अखंड गहमरी
(1)
जलती दहेज में बेटी मेरे इस समाज में
लाचारी में रोता बेटी का बाप समाज में
हो गया समझौता अब चूल्हा और सास में
बरनरो की लौ भपके बस बहुओं के पास में
बेटी कि बहू खड़ी देखे अब उसके पास में
होती कितनी समझदारी लपटो के पास में
लड़े सास ननद तो चीखे वैसे आवाज में
आये जमाना पूरा जैसे उसके पास में
जल रही जब बहू कैसे दबी चीख जुबान में
कोइ बचा पाया नहीं पीटे छाती पास में
सजा से नहीं सुधरेगी समाज की हालत अब
कोई ना बेटी दे फिर ये घर की लानत अब
हम सब साथ करे हत्यारों का बहिष्कार अब
बेटी के हत्यारों से न कोइ सरोकार अब
मुहँ के निवाले घर छत छीने सब सरकार भी
जुल्मी को होना यहाँ जीने का अधिकार भी
बेटी को बोझ ना समझे बेटी का बाप भी
पढ़ा लिखा योग्य बना करने दे रोजगार भी
लड़की न बने लकड़ीया कसमे हम खायेगें
बहू बेटी को समाज में पहचान दिलायेगें
(2)
सीता तेरे देश में
नारीयों का अपमान
लुट रही सरेराह नारीयाँ
चारों तरफ आबरू के लूटेरे
हवस के दरिन्दे चीर रहे है वस्त्र
अस्मत तार तार
जल वासना की आग में
कर दिया बर्बाद जीवन
तोड़ दिया सपने अरमान
क्या करें कैसे जीये
बर्बाद हमारा जीवन
जी रही पहने कफन
उपर से समाज के सवाल
कब क्यों कैसे
सवाल वस्त्र पर
सवाल साथ पर
सवाल ही सवाल माथे पर
तन भेदती निगाहे
मगर वो दरिन्दे
आज भी
घूम रहे खुलेआम
चिड़ा रहे है हमे
धाराओं के जाल को तोड़ते
खेल कर धाराओं से
जी रहे है जीवन
मुहँ चिड़ा रहे है
भारतीय संविधान को
हमारे संस्कार को
हमारी सभ्यता को
मगर हम क्या करें
कैसे जीये जीवन
कोई नही रोकने वाला
आखिर क्यों नहीं रूकता
रूकेगा यह जरूर रूकेगा
सजाओं को धाराओं में
ना उलझाओं
कर दो बहिष्कार दरिन्दों
के परिजनों का
छीन लो रोटी रोजगार जीने का हक
लाओं समाजिक चेतना हमारे साथ चलो
ना करो अनसुनी हमारी चीखों को
आओ बुलाने पर रक्षा करों हमारी
भले ना आये रक्षा को सरकार
रोक ना पाये उसे सरकार मगर
मगर है विश्वास तुम आओगें
लाओगे समाजिक चेतना
तो जरूर रूकेगा जरूर रूकेगा
रहेगा नारीओं के पास
अस्मिता का सम्मान
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गिरिराज भंडारी
विडम्बना (अतुकांत)
समाज ,
निर्जीव घर नही है
कंक्रीटों का ।
समूह है,
उनमे रहने वाले सजीवों का ।
और ये रहने वाले
चाहे हम हैं,
या ये, या वो ,
स्वयँ समस्या भी हैं
किसी हद तक ,
और समाधान भी हैं
उसी हद तक ।
समस्या,चाहे कोई भी हो
स्वीकार करें अगर हम
ईमानदारी से ।
दवायें तो हम खाते हैं
स्वयँ ,
ठीक होने के लिये
अपनी अपनी बीमारियों से
किंतु ,
ठीक करना चाहते हैं
दूसरों को ,
उन बुराइयों के लिये
जिसके श्रोत हैं , हम खुद ।
बस !
यही विडम्बना है ,
यही दूरी है ,
समस्या और समाधान के बीच ॥
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शिज्जू शकूर
जियें शुद्ध हवा में (अतुकांत)
मुहल्ले की तंग गलियों से निकल कर
सड़क पे आते तक
कभी बस में बैठे हुये
कभी बाइक पे सवार
नाक बंद किये हुये इंसानों को,
रास्तों के दोनो तरफ,
दिख जाते हैं,
मुँह चिढ़ाते,
कूड़ों के ढेर
और इनमें पलती बीमारियाँ
ये कुसूर किसका है?
हम इंसानों की नादानियाँ
पर्यावरण की अनदेखी
बेसाख़्ता कटते पेड़
सोचिये
इन सबका क्या अंजाम होगा?
वही, झुलसाती गर्मी,
चटखे हुये खेत
सूखी नदियाँ,
और कभी
उफनती नदी, वो सैलाब,
जो छोड़ जाता है, पीछे,
मातम करते इंसान
आओ दोस्तो,
एक कदम मैं चलता हूँ
एक तुम चलो,
मैं अपने घर से शुरू करूँ
तुम अपनी शुरूआत करो,
तुम अपना घर साफ करो
मैं अपना,
एक पेड़ मैं लगाता हूँ
एक तुम लगाओ
आओ,
जियें शुद्ध हवा में ….
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मीना पाठक
बहू भी बनेगी कभी सास (अतुकान्त)
जन्मते ही बेटे को
खुश हो जाती
छुपा कर आँचल में
ढूध पिलाती माँ |
उंगुली पकड़ा कर अपनी
चलना सिखाती
गिर जाता जब चलते-चलते
उठा सीने से लगाती माँ |
धीरे-धीरे बढ़ते देख
बेटे को इतराती
होते सिर से ऊँचा देख
हर्षाती माँ |
बीतने लगी ऋतुएँ
उम्र की लकीरे माथे पर
बलों मे चांदी की चमक
आने लगी माँ के |
उम्र की ढलान पर
अब जवां बेटे से
लगाने लगी
सहारे की आस माँ |
हुआ विवाह बेटे का
आई सुघड़ बहू
निरख सूरत बहू की
जुड़ाती माँ |
हवा फिर चली ऐसी
बहू के साथ बेटे की
बदलती चाल
देख घबड़ाती माँ |
हो गया बेटा पूरा बहू का
नाज नखरे उठाता उसके
थी सहारे जिसके, बूढी
बिधवा, बेसहारा माँ |
देख बेटे-बहू का रंग-ढंग
आहत होता उसका अंतर्मन
कराहती अब पीड़ा से
देख बेटे को जो हर्षाती थी माँ |
बढ़ने लगा अकेलापन
घुटने लगा दम
आवाज भी ना सुनता कोई
कराहती जब माँ |
'वो' भी बनेगी कभी सास
गर सोच ले बहू एक बार
फिर ना होगी कभी ऐसी लाचार
कोई बेसहारा बूढ़ी माँ ||
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कल्पना रामानी
गजल-//मात्रिक छंद//
कल पुर्जों पर ही यह जीवन, यदि मानव का निर्भर होगा।
नई सदी में ज़रा सोचिए, जीना कितना दुष्कर होगा।
यंत्रों की हो रहीं खेतियाँ, खाद-बीज *श्रीहीन सभी हैं,
फल क्यों जीवित हमें मिलेंगे, अगर जीन ही जर्जर होगा?
भूख, अशिक्षा, रोजगार, घर, मूल समस्याएँ जन-जन की,
मिलकर सब जन अगर विचारें, समाधान भी बेहतर होगा।
कल पर ही क्यों नज़रें होतीं, काल कभी कहकर आया है?
आज अगर यह अवसर खोया, महाप्रलय का मंजर होगा।
मूढ़ खिवैया, डगमग नैया, बीच भँवर में फँसी बेबसी,
होश तभी आएगा शायद, जब पानी सिर ऊपर होगा।
हुक्मरान ने उलझाया है, हर हिसाब को जाल बिछाकर,
सुलझेंगे तब मसले सारे, जब हर एक जन साक्षर होगा।
शिक्षित हाथों में हल लेकर, सिंचित हो यदि श्रम की खेती,
खेत-खेत उपजेगा सोना, हरा गाँव का हर घर होगा।
संकल्पों की थाम लेखनी, लेख उकेरें पाषाणों पर,
जो लिक्खेंगे आज 'कल्पना' वही मील का पत्थर होगा ।
*संशोधित
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लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी
कर सकते है निवारण
मानवीय जरूरतों से अंकुरित
सहयोगी भाव से प्रस्फुटित
बहुआयामी रिवाज और रीतियाँ,
कालांतर में सुरसा सी फैलती गई
मानव जीवन को कुंठित करती
नाना प्रकार की कुरुतियाँ |
तुच्छ स्वार्थ और वासना के वशीभूत
अमानवीय दुश्कार्मिता, और
युवतियों को काल के ग्रास भेजती
दानवी दहेज़ प्रथा,
अशिक्षा मूडता व् अंधविश्वासों से
पोषित प्रतिष्ठा के तले जन्मी
म्रत्यु भोज प्रथा |
अहमभाव में अकडा
साम्प्रदायिकता में जकड़ा
मानव कुंठित हो
कुरुतियाँ दूर करने को संकल्पित
गठित हुई सामाजिक संस्थाए |
संस्थाओं के रंगमंच पर
योगदान और सेवा भाव से
कुछ कार्य हुआ अधिक नहीं,
संस्कार,शौर्य सहकार संन्तुष्टि
कार्य की प्रेरणा
कलात्मक सृजन से कम नहीं |
आदिम प्रवृत्तियों का परिष्कार
स्वार्थ का परिशोधन
परमार्थ भाव से कार्य प्रेरणा
से ही संभव समाज सुधार |
द्रष्टिकोण सुधारकर
दक्षता का उपयोग कर
जानकार समस्याओं का कारण
मन पर लगे लगाम
कर्म ही समझे काम
मिलजुलकर संलग्ना से
कर सकते है निवारण |
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सरिता भाटिया
बेटी ने तो उनका घर है संवारा
बेटे बिन अपना नहीं है गुजारा
सास भी कभी बहू थी भूली है आज
इसीलिए बहू घर में नहीं अब गंवारा/
बहू को बेटी जो बनाकर लाओ
घर आँगन उससे तुम सजाओ
गूंजेंगी किलकारियां नाचेगी ख़ुशी
वृद्धाश्रम की सोच को ही भगाओ /
अम्बे काली दुर्गा माता सब नारी कहलाती
कन्या पूजन के दिन घर घर नारी पूजी जाती
क्यों कन्या को पैदा करके घबराती है नारी
सरे आम चौराहे में क्योंकि वो है लुट जाती/
मानसिकता यह कैसी जो नर पर है अब भारी
माँ बहन या बेटी सबकी भी तो है इक नारी
बेटा बेटी को बराबर का मान अगर दिलाएं
नर सम्मान दे नारी को नारी भी जाये वारी/
आओ अब तो इस समाज में इन्कलाब हम लायें
नारी को हम घर समाज में अब सम्मान दिलायें
बाल बाला को शिक्षित कर दूर करें दहेज़ की प्रथा
अपनी बेटी को भेज सुरक्षित सबकी बेटी अपनायें/
भ्रष्टाचार कालाबाजारी मुँहबाए सामने खड़ी हैं
हुक्मरानों की तलवारें आपस में ही अब भिड़ी हैं
नहीं मिला अब तक रोटी कपड़ा और मकान
फ्री जल बिजली खातिर लड़ाइयां जा रही लड़ी हैं/
हर कोई चाहता ऐसा बेटा जिस पर उसको मान हो
बेटी चाहिए लक्ष्मी जैसी जिससे घर का सम्मान हो
खुद नहीं बनना चाहता कोई भक्त सिंह,झाँसी की रानी
हर कोई चाहता एक भक्त सिंह जो देश लिए कुर्बान हो/
झाँसी लक्ष्मी दुर्गा बनो पर नहीं दामिनी बनना
मत ढूंढो तुम भक्त सिंह खुद भक्त सिंह बनना
आशा कैसी दूसरों से खुद ही अगर तुम जागो
खुद को समझो आम क्यों आप को ख़ास है बनना/
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अरुण कुमार निगम
“हम सुधरे तो युग सुधरेगा”
आदिकाल के मानव ने था , रखा सभ्यता के पथ पाँव
और बाँटते रहा हमेशा , अपनी नव - पीढ़ी को छाँव
कालान्तर में वही सभ्यता , चरम -शिखर पर पहुँची आज
आओ हम मूल्यांकन कर लें,कितना विकसित हुआ समाज
नैतिकता को लील रहे हैं, कितने चैनल औ’ चलचित्र
दूषित वातावरण “पीढ़ियाँ” , कैसे खुद को रखें पवित्र
कौन दिशा सभ्यता चली है,यह उन्नति है या अवसान
बलात्कार को न्यौता देते ,खुद ही उत्तेजक परिधान
मेहनत की लुट रही कमाई , फूल रहा ‘सट्टा – बाजार’
धन-दौलत को ‘जुआ’ खा रहा, मदिरा लूट रही घर-बार
‘कर’ की लालच जोंक सरीखी,नशा कर रहा सेहत नाश
सत्यानाशी सत्ताधारी , धरा छोड़ देखें आकाश
यदाकदा अब भी होते हैं,इस युग में भी बाल विवाह
ऐसे माता - पिता अशिक्षित, या होते हैं लापरवाह
मार रहे कन्या-भ्रूणों को , वंश-वृद्धि की मन में चाह
पढ़े - लिखे ऐसे मूर्खों को , बोलो कौन दिखाये राह
कहीं चोरियाँ कहीं डकैती , कहीं राह में कटती जेब
कहीं अपहरण कहीं फिरौती , कहीं झूठ है कहीं फरेब
कहीं बाल-श्रमिकों का शोषण, कहीं भिखारी मांगें भीख
सदी यातना भुगत रही है , सिसक रही है हर तारीख
किसको जिम्मेवार बतायें , किसके सर पर डालें दोष
किसके सम्मुख करें प्रदर्शन,प्रकट करें हम किस पर रोष
दोषारोपण छोड़ चलो हम, मिलजुल कर कर लें शुरुवात
“हम सुधरे तो युग सुधरेगा” , सोलह आने सच्ची बात
नैतिक शिक्षा पर बल देकर , बच्चों में डालें संस्कार
हंसों की पहचान करें हम , और चुनें उत्तम सरकार
त्याग सभ्यता पश्चिम की अब, सीखें बस पूरब का ज्ञान
फिर सोने की चिड़िया होगा, अपना भारत देश महान
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सत्यनारायण सिंह
कुण्डलिया छंद
संक्षिप्त विधान : (दोहा+रोला ) आरम्भ में एक दोहा और उसके बाद इसमें छः चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में चौबीस मात्राएँ होती हैं। दोहे का अन्तिम चरण ही रोला का पहला चरण होता है तथा इस छन्द का पहला और अंतिम शब्द भी एक ही होता है।
विषय - सामाजिक समस्याएँ और उनका निराकरण
(१)
रोजी रोटी पेय जल, शिक्षा वसन निवास।
दुर्लभ होते देख के, सबके उडे हवास।।
सबके उडे हवास, नहीं लागे मन चंगा।
घोर प्रदूषण मार, झेलती शुचिता गंगा।।
राजा हो या रंक, चलें सब अपनी गोटी।
चहुँ दिशि भ्रष्टाचार, मिले ना रोजी रोटी।।
(२)
भारी सब पर है पड़ी, जनसंख्या की मार।
मूल समस्या है यही, करिये तनिक विचार।।
करिये तनिक विचार, रोक ऐसी लग जाये।
सीमित हो परिवार, ख़ुशी हर घर में छाये।।
नैतिकता के संग, सभी निज खेलें पारी।
हो समाज फिर स्वस्थ, यही हल सब पर भारी।।
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बृजेश कुमार 'नीरज'
आँधियों का मौसम
आँधियों का मौसम है
हर तरफ धूल, गर्द
आँखों में किरचियाँ सी चुभती हैं
जंगली पौधों की जड़ों से
कमजोर हुई नींव हिलती है
हाथ बढ़ाते ही
दीवार की ईंट सरक कर गिर पड़ी
तापमान बढ़ रहा है
लेकिन शिराओं में बहता रक्त
ठंडा है
स्वाद खोते आम
मुँह कसैला करते हैं
सूखती नीम कौरी विवश
ओस के लिए आसमान ताकती है
वर्जनाओं के शिखर पिघल रहे हैं
लेकिन पानी की धार बहती
जा मिलती है एक खारी झील से
कुओं से
पानी उलीचने की कोशिश
नाकाम ही होती है
होंठ सूख रहे हैं
अक्षर रंग बदल रहे हैं
कथाएँ अर्थ
नई परिभाषाएँ गढ़ी जा रही हैं
नए मठ आकार ले रहे हैं
कलम से रिसती स्याही की बूँदें
एक पतली लकीर में बहती
बढ़ रही हैं क्षितिज की ओर
जहाँ धरती हरी है
आसमान नीला
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सविता मिश्रा
टूटते रिश्तें
रिश्तें खंडित हो रहे है
विखंडित हो रहे है जगह-जगह
महिमामंडन होता है
बस उसका जिसका
गुलाम बन जाता है
कोई अदद रिश्ता
कई रिश्तें है पर
जोरू का गुलाम
सर्वोपरि आता है
जोरू की हर बात को
राजाज्ञा समझ बैठा लेता है
दिलोदिमाक में
हर रिश्तें का कर डालता है
विच्छेदन, मान-मर्दन
कुचल देता है वह
सारे संस्कार जो
माँ-बाप से मिले होते है
जन्मदाता को गुलाम
बनाने की चाहत में
बन जाता है अनजाने में ही
पुर्णतः जोरू का गुलाम
जोरू जो कहें वही
होता है उसके लिए
अब पत्थर की लकीर
सभी लक्ष्मण रेखाएं
लाघ जाता है वह
पर यह भूल जाता है
भविष्य देख रहा है
वर्तमान की यह
सारी ही गतिविधिया
भविष्य वर्तमान का
यह विक्षिप्त रूप
नहीं अपनाए
इसके लिए अतीत को
संवार लो इज्जत दो
अतीत की इज्जत करोगे तो
भविष्य की नजरों में
खुद-ब-खुद
इज्जतआफजाई होगी|
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आदरणीया डॉ. प्राची सिंह जी सादर, महा उत्सव के सफल संचालन एवं रचनाओं के संकलन के लिए बहुत बहुत बधाई एवं आभार. कई बार महा उत्सवों में मौसम का प्रभाव देखने को मिला है, इस बार के महा उत्सव पर भी शीत का असर देखने को मिला है. मुझे लगता है संकलन पर भी यह असर रहा है.सादर.
महा उत्सव के अंतिम दौर में मैंने अपने एक दोहे में संशोधन की गुजारिश की थी शायद आपका उस पर ध्यान नहीं रहा होगा. वैसे मैंने अपने पास की मूल रचना में वह सुधार कर लिया है.अब वह इस प्रकार हो गया है
भ्रष्ट बनाया तन्त्र को, कर-कर के गुणगान |
निज परिवर्तन लक्ष्य ही, बदले हर इंसान ||
महोत्सव के संचालन व संकलन प्रस्तुति पर आपकी शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद आ० अशोक रक्ताले जी
इस बार शीत के असर के बावजूद भी ये महोत्सव सफल रहा ये हम सभी के लिए खुशी की बात है.
व्यस्तताओं के चलते आपके द्वारा प्रेषित संशोधन पर नज़र न जा सकी...संकलन में संशोधन कर दिया गया है.. संज्ञान में लाने के लिए सादर धन्यवाद.
इस बार कुछ सदस्य शीतकालीन छुट्टियों में घूमने के प्रोग्राम के चलते, तो कुछ अतिशय कार्यालयी व्यस्तताओं के चलते महोत्सव में सहभागिता नहीं दे सके...पर जीवन ऐसे ही चलता है और सब अपने अपने हिस्से का समय बटोर कर मंच पर आने का भरसक प्रयत्न करते हैं...
महोत्सव में उपस्थित न हो पाने के बाद भी महोत्सव की रिपोर्ट और संकलित प्रस्तुतियों पर आपका अनुमोदन हर्षित करता है..
बहुत बहुत धन्यवाद प्रिय विन्ध्येश्वरी जी
एक और सफल आयोजन हेतु समस्त ओ बी ओ टीम को हार्दिक बधाई विस्तृत रिपोर्ट बेहद सुन्दरता से प्रस्तुत की गई है इस श्रमसाध्य कार्य हेतु आपका हार्दिक धन्यवाद दीदी.
संकलन के साथ महोत्सव की रिपोर्ट आपको पसंद आयी जानकर रिपोर्ट लिखने के अपने प्रथम प्रयास पर आश्वस्ति हो रही है
हार्दिक धन्यवाद भाई अरुण शर्मा जी
आदरणीया प्राची जी, रचनाओं के उम्दा संकलन एवं मंच के शानदार संचालन के लिए बधाई ।
आदरणीय नादिर खान जी
इस बार के महोत्सव में सक्रिय उपस्थिति और ऊर्जस्वी सहभागिता के लिए आपका भी सादर अभिनन्दन.
संचालन व संकलन कर्म के अनुमोदन के लिए सादर धन्यवाद
क्षमा कीजियेगा आ० रमेश कुमार चौहान जी
आपका नाम संशोधित कर दिया गया है
संज्ञान में लाने के लिए धन्यवाद
सादर
आदरणीया प्राची जी, प्रथम तो इस बात के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ कि इस संकलन पर विलम्ब से पहुँच सका.
आपने इस संकलन के लिए जो श्रम साध्य कार्य किया है, उसके लिए आपकी जितनी सराहना की जाए, कम है.
रचनाओं के संकलन के साथ आपकी विस्तृत टिप्पणी ने इस संकलन को नया रूप दिया है. इसके लिए आपका बहुत आभार!
ये आयोजन एक कार्यशाला ही हैं, जिनके माध्यम से सीखने का और तदनुसार प्रयोग करने का अवसर प्राप्त होता है. इन आयोजनों के माध्यम से ही मुझ जैसे व्यक्ति ने बहुत कुछ सीखा है और अब भी सीख रहा हूँ.
इस संकलन के लिए आपका बहुत आभार और आयोजन के कुशल संचालन के लिए आपको हार्दिक बधाई!
सादर!
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