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राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ३८

पुणे से पत्नी को लिखा पत्र

 

प्यारी बिन्नी,

 

वो गांव ही अच्छा था जहाँ हम रहा करते थे

जहाँ के पेड पौधे, खेत खलिहान और

कुत्ते भी हमसे बातें किया करते थे

 

वो गांव क्या था पूरा परिवार था

हर आदमी इक दूसरे के प्रति

कितना जिम्मेवार था

सबकी खुशियाँ हमारी खुशियाँ थीं और

हमारे दुःख में हर कोई हिस्सेदार था

 

गांव के चौधरी यही तो कहा करते थे

वो गांव ही अच्छा था जहाँ हम रहा करते थे

 

वो दूर पहाड़ों की ढलानों तक गैओं को हाकना

और जंगलों की लकडियों पे रोटिओं को सेकना

पेड़ों की ओट में लुका छुपी खेलना

और शाम को, घर के चौबारे पर

मिटटी के तेल का दिया मेलना

 

तारों को गिनते हुए हम मीठी नींद में सो जाया करते थे

वो गांव ही अच्छा था जहाँ हम रहा करते थे

 

खेतों में हवाओं के आँचल का सनसनाना

और दूर अमराइओं में

कोयल का कुह्कुहना

गांव के स्टेशन से रेलगाड़ियों को रोज देख कर

घर पैदल आना

 

रास्ते भर हम ट्रेन के मुसाफिरों को सोचा करते थे

वो गांव ही अच्छा था जहाँ हम रहा करते थे

 

गांव में भीखू था, मलंग था, पटवारी था

और मेरे लड़कपन का दोस्त

लंबी चुटिया वाला तिलकधारी था

और हाँ, वो तुम्हें दूर, से चुपचाप चाहने वाला

बेजुबान, शर्मीला शिवधारी था

 

अरहर के खेतों में लुक-छप कर हम क्या-क्या नहीं किया करते थे

वो गांव ही अच्छा था जहाँ हम रहा करते थे

 

पंचयत के अहाते में एक मंदिर था, गुरुद्वारा था

और पास में ही लाल पताकाओं से सराबोर

हनुमानजी का अखाडा था

वहीँ कोने में जुम्मन चाचा की बनाई मस्जिद थी

और बाजू में इमामबाडा था

 

हम कहीं वजू, कहीं सदके, तो कहीं मत्था टेका करते थे

वो गांव ही अच्छा था जहाँ हम रहा करते थे

 

सुबह सुबह माँ का रसोई में लग जाना

और पिताजी का बैलों को लेकर खेतों में जाना

घर के बड़े-बूढों का घर के दालान में बैठक जमाना

और बच्चों का स्कूल के बाद गली-गली इतराना

 

काम का दिन हो या छुट्टी का, हम रोज सुबह उठ जाया करते थे

वो गांव ही अच्छा था जहाँ हम रहा करते थे

 

© राज़ नवादवी 

पुणे २६/०९/२०११ 

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Comment

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Comment by Albela Khatri on July 13, 2012 at 8:05am

:-)

Comment by राज़ नवादवी on July 13, 2012 at 12:32am

अलबेला साहेब, आप की हाय हाय एक दिन जान ले जाएगी! बहुत बहुत शुक्रिया. मस्रूफियात ने अदब से अभी दूर किए रक्खा है. देखिए, कब ज़िंदगी में ग़ालिब जैसी फुर्सत हो और गालिबाना बेफिक्री. 

आपका मग्नून, राज़ नवादवी! 

Comment by राज़ नवादवी on July 13, 2012 at 12:29am

रेखाजी, बहुत बहुत धन्यवाद. इधर काम के सिलसिले में इतना मसरूफ हूँ की समय पे न आपलोगों की इनायतों का शुक्रिया अदा कर पाता हूँ और न ही पठन पाठन और लेखन का वक्क्त मिल पता है. मगर खुशी होती है जब आप सरीखे लोगों की तहसीन मिलती है. 

- राज़ नवादवी. 

Comment by Rekha Joshi on July 10, 2012 at 1:37pm

राज़ जी ,

एक से बढ़ के एक खुबसूरत रचनाएँ ,
 तारों को गिनते हुए हम मीठी नींद में सो जाया करते थे

वो गांव ही अच्छा था जहाँ हम रहा करते थे,सीधी सादी,जिंदगी ,बधाई 

Comment by Albela Khatri on July 10, 2012 at 12:53pm

धन्य हो राज नवादवी साहेब........

वो दूर पहाड़ों की ढलानों तक गैओं को हाकना

और जंगलों की लकडियों पे रोटिओं को सेकना

पेड़ों की ओट में लुका छुपी खेलना

और शाम को, घर के चौबारे पर

मिटटी के तेल का दिया मेलना


__हाय हाय हाय

___बहुत खूब !

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