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एक धरती जो सदा से जल रही है  
********************************

२१२२    २१२२     २१२२ 

'मन के कोने में इक इच्छा पल रही है'

पर वो चुप है, आज तक निश्चल रही है

 

एक  चुप्पी  सालती है रोज़ मुझको

एक चुप्पी है जो अब तक खल रही है

 

बूँद जो बारिश में टपकी सर पे तेरे    

सच यही है बूंद कल बादल रही है

 

इक समस्या कोशिशों से हल बनी तब 

इक समस्या फिर से पीछे चल रही है

 

चाँद पूरा है मगर लगता है धुँधला

क्या कोई बदली उसे फिर छल रही है

 

'तुम हँसे, तो फिर हँसी लौटी मेरी भी 

जो हँसी अब तक कहीं ओझल रही है'

 

कर्म-फल-पट और इच्छा-पट से मिल के

है बनी चक्की जो सबको दल रही है 

 

एक है सूरज जो तपता है सदा ही

एक धरती जो सदा से जल रही है

 

वो बना है नीव का पत्थर खुशी से

इसलिए उसकी खुशी बस टल रही है 

************************* ******** 
मौलिक एवं  अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी yesterday

आदरणीय नीलेश भाई , ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सलाह के लिए आपका आभार 

आपकी दोनों सलाह अच्छी हैं , स्वीकार है , आवश्यक सुधार  कर लूंगा , आभार आपका 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी yesterday

आदरणीय रवि भाई , ग़ज़ल पर उपस्थिति और उत्साह वर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार 

Comment by Nilesh Shevgaonkar yesterday

आ. गिरिराज जी 
समर सर ग़ज़ल पर कह ही चुके हैं. बादल वाले शेर को यूँ कर के देखें..
.

बूँद जो बारिश में टपकी सर पे तेरे    

एक पल पहले तलक बादल रही है.
.

इक समस्या कोशिशों से हल हुई पर 

इक समस्या अब भी  पीछे चल रही है
.
बहुत बहुत बधाई 
सादर 

 



Comment by Ravi Shukla yesterday

आदरणीय गिरिराज भाई जी  ग़ज़ल पेश करने के लिये आपको बहुत बहुत बधाई । चरचा  पढने से ेओझल काफिये के शेर में आदरणीय समर साहब के सुझाव से शेर अच्छा हो गया है । पुनः बधाई ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 19, 2025 at 5:41pm

आदरणीय समर  भाई , ग़ज़ल पर  उपस्थिति  और विस्तृत सलाह के लिए आपका आभार 
तक़ाबूल-ए- रदीफ़ वाला शेर ऐसे कर रहा हूँ 
एक  चुप्पी  सालती है रोज़ मुझको 
एक चुप्पी है जो अब तक खल रही है 
 बाक़ी सुधार जो आपने सुझाए है वो स्वीकार है , बूँद वाला शेर अभी वैसे ही रहने दे रहा हूँ  
आपका आभार 

Comment by Samar kabeer on April 19, 2025 at 4:32pm

जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब, काफ़ी समय बाद मंच पर आपकी ग़ज़ल पढ़कर अच्छा लगा ।

ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।

'एक इच्छा मन के कोने पल रही है'

इस मिसरे का वाक्य विन्यास ठीक नहीं है, उचित लगे तो इसे यूँ कर लें:-

'मन के कोने में इक इच्छा पल रही है'

'एक चुप्पी है जो मुझको सालती है

एक चुप्पी है जो अब तक खल रही है'

इस शे'र में तक़ाबूल-ए- रदीफ़ है, इसे सुधारने का प्रयास करें ।

'बूँद जो बारिश में टपकी सर पे तेरे    

सच यही है बूंद कल बादल रही है'

इस शे'र के दोनों मिसरों में "बूँद" शब्द खटकता है ।

'तुम हँसे, तो वो हँसी लौटी मेरी भी 

जो हँसी अब तक छिपी, ओझल रही है'

इस शे'र के ऊला में "वो" शब्द भर्ती का है, और सानी में जब 'ओझल' शब्द आ गया तो 'छिपी' का क्या अर्थ रह गया, उचित लगे तो इस शे'र को यूँ कर लें:-

'तुम हँसे, तो फिर हँसी लौटी मेरी भी 

जो हँसी अब तक कहीं ओझल रही है'

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