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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 165 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | 

इस बार का मिसरा जनाब फ़रहत अब्बास शाह साहिब की ग़ज़ल से लिया गया है |

'रास्ता बदलने में देर कितनी लगती है'

फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन
212 1222 212 1222
हजज़ मुरब्बा अश्तर मुज़ाहिफ़
रदीफ़ -में देर कितनी लगती है

क़ाफ़िया:-(अलने की तुक) जलने,पिघलने,ढलने,मलने,मसलने,निकलने आदि ।

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 28 मार्च दिन गुरुवार को हो जाएगी और दिनांक 29 मार्च दिन शुक्रवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |

एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |

तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |

शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |

ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |

वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें

नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |

ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

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मंच संचालक

जनाब समर कबीर 

(वरिष्ठ सदस्य)

ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

आदरणीय अमित जी, सादर अभिवादन! आपकी विस्तृत टिप्पणी और सुझावों के लिए हृदय से आभारी हूँ। इस सन्दर्भ में मैं कहना चाहूँगा कि :

1. //ज़ह्र  को निगलने में देर कितनी लगती है//
बहुत शुक्रिया। सुधार कर लिया।

2. //"दर्द-ए-दिल सँभालने में" सहीह वाक्य है मेरे विचार से।//
यहाँ पर 'सँभलने' और 'सँभालने' दोनों का प्रयोग किया जा सकता है। जब हम 'सँभालने' का प्रयोग करते हैं तो ख़ुद को केन्द्र में रखते हैं और जब 'सँभलने' का तो दिल के दर्द को।

3. //( हुस्न ढलना सुना है, रंग में ढलना सुना है,  रंग फीका होना सुना है । रंग ढलना के प्रयोग पर संशय है )//
शायद आपने यह गीत नहीं सुना : "गोरे रंग पे न इतना गुमान कर, गोरा रंग दो दिन में ढल जाएगा।"

4. //चारागर ये देखे है दे के मुझको ज़ह्र-ए-ग़म//
अच्छा सुझाव है। परिवर्तन किया जा सकता है।

5. //(सानी में अगर आप गाड़ी से कुचले जाने की (ख़ुदकुशी) बात कर रहे हैं तो यह वाक्य ठीक नहीं होगा। "गाड़ी से कुचलने" में कर्ता आप बन जाएँगे जो यादों को गाड़ी से कुचलना चाहता है। विचार करें )//
सही कह रहे हैं। पर यादें हैं कहाँ? मस्तिष्क में ही न। और मस्तिष्क शरीर का ही तो भाग है।

6. // (ख़ाक मुझको की जगह ख़ाक होते कहना ठीक होगा । मुझको या मुझे उला के पहले भाग में कह लें )//
किया जा सकता है। पर 'ख़ाक होते' कहने पर यह बात स्पष्ट नहीं होगी कि यहाँ ख़ुद के ख़ाक होने की बात की जा रही है।

सादर।

आदरणीय महेन्द्र कुमार जी आदाब, तरही मिसरे पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है बधाई स्वीकार करें, 

क्या पिघल न जाते तुम, मोम-से अगर होते 

मोम को पिघलने में देर कितनी लगती है

हूर हो, परी हो, या अप्सरा ही हो कोई...... पहली बात हूर याअप्सरा का हुस्न दाइमी होता है जो कभी ढलता नहीं है। 

हुस्न-ओ-रंग ढलने में देर कितनी लगती है..... दूसरे प्राकृतिक ढंग से रूप रंग  ढलने में (कुछ सालों की) एक मुद्दत तो लगती ही है।

शेष आदरणीय अमित जी कह ही चुके हैं।

आदरणीय अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। इस प्रयास की सराहना हेतु आपका हृदय से आभारी हूँ। 

1. //क्या पिघल न जाते तुम, मोम-से अगर होते//
'मोम-से अगर होते' और 'मोम गर जो होते तुम' दोनों सहीह हैं। पर दूसरे वाले में लयात्मकता ज़्यादा है।

2. //हूर हो, परी हो, या अप्सरा ही हो कोई...... पहली बात हूर याअप्सरा का हुस्न दाइमी होता है जो कभी ढलता नहीं है।//
यहाँ हूर, परी और अप्सरा का प्रयोग लाक्षणिक अर्थ में किया गया है और इस अर्थ में यह ढल सकता है।

3. //हुस्न-ओ-रंग ढलने में देर कितनी लगती है..... दूसरे प्राकृतिक ढंग से रूप रंग  ढलने में (कुछ सालों की) एक मुद्दत तो लगती ही है।//
समय का कम या ज़ियादा होना (अथवा लगना) सापेक्ष होता है।
सादर।

जनाब महेन्द्र कुमार जी, 

//'मोम-से अगर होते' और 'मोम गर जो होते तुम' दोनों सहीह हैं। पर दूसरे वाले में लयात्मकता ज़्यादा है।//

अपने मिसरे पर ग़ौर फ़रमाएँ... 

212 1222 212 1222

"क्या पिघल न जाते तुम, मोम गर जो होते तुम" 

सुझाव देखिये..... "क्या पिघल न जाते तुम, मोम-से अगर होते"

  1. आपके मिसरे में "तुम" शब्द की ग़ैर ज़रूरी पुनरावृत्ति है जबकि सुझाये मिसरे में नहीं। 
  2. आपके मिसरे में 'जो' शब्द को मात्रा पतन के साथ इस्तेमाल किया गया है जबकि सुझाये गये मिसरे में कोई मात्रा पतन नहीं है, तो लयात्मकता ज़्यादा कहाँ हुई, ग़ौर कीजियेगा। 

 

" हूर हो, परी हो, या अप्सरा ही हो कोई

  हुस्न-ओ-रंग ढलने में देर कितनी लगती है" 

आपका कहना है कि "यहाँ हूर, परी और अप्सरा का प्रयोग लाक्षणिक अर्थ में किया गया है और इस अर्थ में यह ढल सकता है।" 

  1. माशूका या प्रियतमा के लिए हूर, परी या अप्सरा का प्रयोग लाक्षणिक रूप से बिल्कुल हो सकता है लेकिन जब आप किसी शय को लाक्षणिक रूप में प्रयोग करेंगे तो उसके लक्षण "गुण-अवगुण" कैसे बदल सकते हैं?
  2. अपना मिसरा देखें "हुस्न-ओ-रंग ढलने में देर कितनी लगती है" फिर सुझाव में दिया गया इशारा देखें... "प्राकृतिक ढंग से रूप रंग ढलने में (कुछ सालों की) एक मुद्दत तो लगती ही है।" यहाँ "हुस्न-ओ-रंग" जो एक ग़लत शब्द विन्यास है को "रूप-रंग" सही शब्द विन्यास भी ग्रहण करना भी आपको उचित नहीं लगा।

लब-कुशाई का लब्बो-लुबाब यह है कि कम से कम ओ बी ओ पर कोई भी व्यर्थ ही टिप्पणी नहीं करता है चाहे वह ग़लत ही क्यों न हो मगर उसकी मंशा में सद्भावना ही होती है, दूसरे.. सुझाव बेहतरी के लिए होते हैं उनको ग्रहण करना न करना रचयिता का अधिकार है... सादर। 

1. //आपके मिसरे में "तुम" शब्द की ग़ैर ज़रूरी पुनरावृत्ति है जबकि सुझाये मिसरे में नहीं।
आपके मिसरे में 'जो' शब्द को मात्रा पतन के साथ इस्तेमाल किया गया है जबकि सुझाये गये मिसरे में कोई मात्रा पतन नहीं है, तो लयात्मकता ज़्यादा कहाँ हुई, ग़ौर कीजियेगा।//

मात्रा पतन के दृष्टिकोण से लयात्मकता पर आपका मत बिल्कुल सहीह है। आपका मिसरे में लय ज़ियादा है। किन्तु मैंने जो लयात्मकता की बात की थी वह तुकांतता के दृष्टिकोण से की थी। (आप कह सकते हैं कि तब मुझे तुकांतता का प्रयोग करना चाहिए था।) ऊला मिसरे के पहले हिस्से के अन्त में 'तुम' और दूसरे हिस्से के अन्त में भी 'तुम' का प्रयोग जानबूझकर किया था और ऐसा प्रयोग शाइरी में दूसरों ने भी किया है। उदाहरण के लिए वसीम बरेलवी साहिब का यह शेर देखिए :
तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नहीं
मैं गिरा तो मसअला बन कर खड़ा हो जाऊँगा

2. //माशूका या प्रियतमा के लिए हूर, परी या अप्सरा का प्रयोग लाक्षणिक रूप से बिल्कुल हो सकता है लेकिन जब आप किसी शय को लाक्षणिक रूप में प्रयोग करेंगे तो उसके लक्षण "गुण-अवगुण" कैसे बदल सकते हैं?//

जब हम किसी व्यक्ति अथवा वस्तु के गुणों का आरोपण किसी दूसरे में करते हैं तब हम उसके एक अथवा कुछ ही गुणों का आरोपण करते हैं सभी का नहीं। उदाहरण के लिए, जब हम किसी को हिटलर कहते हैं तो हमारा आशय उसे सिर्फ़ तानाशाह कहने का होता है। यदि ऐसा न होता तो हम किसी महिला को हिटलर नहीं कह सकते थे क्योंकि हिटलर पुरुष था और साथ ही किसी ग़ैर जर्मन को भी। ठीक इसी तरह किसी को हूर कहने का अर्थ उसको अत्यधिक सुन्दर कहना है न कि उसके चिर युवा बने रहने का। अतः यहाँ बात गुण-अवगुण बदलने की नहीं बल्कि चयनित गुणों के प्रयोग की है।

3. //यहाँ "हुस्न-ओ-रंग" जो एक ग़लत शब्द विन्यास है को "रूप-रंग" सही शब्द विन्यास भी ग्रहण करना भी आपको उचित नहीं लगा।//

हुस्न-ओ-रंग ग़लत शब्द विन्यास कैसे है? यदि बात प्रयोग-अप्रयोग की है दो शेर बतौर उदाहरण पेश कर रहा हूँ :

ये हुस्न-ओ-रंग का तूफ़ाँ है मआज़-अल्लाह
निगाह जम न सके और थक के रह गए
–जगन्नाथ आज़ाद

चौदहवीं की चाँदनी में ताज का वो हुस्न-ओ-रंग
चाँद है अपने हरीफ़-ए-हुस्न के जल्वे से दंग
–असद अहमद मुजद्दी असद

यदि हुस्न-ओ-रंग का विन्यास किसी अन्य कारण से ग़लत है तो कृपया रोशनी डालें ताकि भविष्य में इस त्रुटि से बच सकूँ।

4. //लब-कुशाई का लब्बो-लुबाब यह है कि कम से कम ओ बी ओ पर कोई भी व्यर्थ ही टिप्पणी नहीं करता है चाहे वह ग़लत ही क्यों न हो मगर उसकी मंशा में सद्भावना ही होती है//

जी। मैं ओबीओ का पुराना स्टूडेंट हूँ और इस बात को भलीभांति जानता हूँ। आप मेरी टिप्पणियों का स्वर हमेशा संयत ही पाएँगे। ओबीओ की एक परिपाटी चर्चा-परिचर्चा भी है। इसलिए मुझे लगता है कि यदि किसी सुझाव को लेकर हमारे मन में कोई शंका है या उसको लेकर कोई अन्य विचार है तो हमें आपस में उसे साझा करना चाहिए। यहाँ मान-अपमान जैसी कोई बात नहीं है। सिर्फ़ सीखने-सिखाने की ही बात है जिस हेतु यह मंच बना है। अपनी टिप्पणी में मैंने जो भी बात की है वह इसी मंशा से की है। सादर।

  आ. भाई  , Mahendra Kumar ji, यूँ तो  आपकी सराहनीय प्रस्तुति पर आ.अमित जी  सुझाव और उन पर 

आपकी सहमति के पश्चात कुछ भी कहने को बहुत रह नहीं जाता।  किन्तु  काव्य  / ग़ज़ल के किन्हीं बिन्दुओं पर  समूह  में सामान्य  खुशफ़हमी  भाव पक्ष को लेकर  होती रहती है !

आमतौर तर इसकी वजह प्रतीकों  को लेकर होती है ! भाव की अन्तिम अभिव्यक्ति प्रतीक के माध्यम से होती है, न कि शब्द के अभिधार्थ अथवा लाक्षणिक मन्तव्य से !

आपकी ग़ज़ल में  हूर का प्रयोग वस्तुत: प्रतीकात्मक अर्थ में हुआ है, अत: उसमें कुछ भी ग़लत नहीं है ।

बहुत अच्छी इस्लाह की है आपने आदरणीय। बहुत अच्छे से समझाया।

//लब-कुशाई का लब्बो-लुबाब यह है कि कम से कम ओ बी ओ पर कोई भी व्यर्थ ही टिप्पणी नहीं करता है चाहे वह ग़लत ही क्यों न हो मगर उसकी मंशा में सद्भावना ही होती है, दूसरे.. सुझाव बेहतरी के लिए होते हैं उनको ग्रहण करना न करना रचयिता का अधिकार है... सादर। //

इस टिप्पणी के लिए बहुत बहुत शुक्रिय: आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी जी।

आदरणीय अमित जी, आपकी इस इज़्ज़त अफ़ज़ाई के लिए आपका शुक्रगुज़ार रहूँगा। 

आदरणीय महेंद्र जी नमस्कार

अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई स्वीकार कीजिये

गुणीजनों की इस्लाह से काफ़ी बारीकियों का ज्ञान हुआ क़ाबिले ग़ौर है

गिरह ख़ूब हुई

सादर

सादर नमस्कार आ. ऋचा जी। उत्साहवर्धन हेतु दिल से आभारी हूँ। बहुत-बहुत शुक्रिया।

आदरणीय महेंद्र कुमार जी नमस्कार। ग़ज़ल के अच्छे प्रयास हेतु बधाई।

बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय दिनेश जी। आभारी हूँ।

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