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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-146

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 146 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का मिसरा जनाब कुँवर बेचैन साहब की गजल से लिया गया है |

"मगर ढूँढने में ज़माने लगेंगे"

122 122 122 122       

 

बह्र: मुत़कारिब मसम्मन सालिम

 

रदीफ़     :- लगेंगे

काफिया :- आने (बसाने, चलाने, दिखाने, नचाने, बचाने आदि)

मुशायरे की अवधि केवल इसबार तीन दिनों का है | मुशायरे की शुरुआत दिनांक 27 अगस्त दिन शनिवार को हो जाएगी और दिनांक 29 अगस्त दिन सोमवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

 

नियम एवं शर्तें:-

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |

एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |

तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |

शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |

ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |

वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें

नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |

ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

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मंच संचालक

राणा प्रताप सिंह 

(सदस्य प्रबंधन समूह)

ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

आ. रिचा जी, प्रशंसा के लिए आभार।

आ.लक्ष्मण भाई,बढ़िया गजल हेतु बधाइयां।

आ. भाई मनन जी, सादर अभिवादन। उपस्थिति व सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद।

आदारणीय लक्ष्मण जी, अच्छी ग़ज़ल हुई। बधाई। 

२ "बुझे घाव" जम नहीं रहा है। सुझाव... 

"मेरे ज़ख़्म.........."

३ "सोचना" की जगह "मानना" पर विचार कर सकते हैं। 

५ सुझाव... 

"न छीनो मेरे यार बच्चों से बचपन

समय से ही पहले सयाने लगेंगे"

आ. भाई संजय जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति व उचित सुझाव के लिए आभार। 

आदाब , भाई लक्ष्मण सिंह 'मुसाफिर' ग़ज़ल का प्रयास  अच्छा हुआ है। काफी  कुछ  कहा  जा चुका है, फिर  भी 

कहना  चाहूँगा कि ग़ज़ल उच्च  कोटि  का  काव्य है, यही कारण है कि आप और हम सब इसके उपासक है, सो काव्य / ग़ज़ल स्नेह, प्रेम, असाधारण संवेदनशीलता और शिष्टाचार का उदाहरण है, वैसे भी कोई भी रचना मात्र शब्द - संयोजन अथवा उनका पिरोया जाना नहीं है, और घृणा / नफरत इसका अभीष्ट अथवा ध्येय हो भी नहीं सकता। लेकिन मंच पर आपको, "जरा बोल दो अब न आयें इधर वो / बुझे घाव फिर  मुस्कराने लगेंगे ", के लिए ही सराहा गया है, सोच का विषय है !

आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और सुझाव के लिए हार्दिक धन्यवाद।

आ. भाई दण्डपाणि जी, सादर अभिवादन। उत्साहवर्धन के लिए आभार।

आदरणीय लक्ष्मण भाई जी बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल कही बहुत-बहुत बधाइयां

आ. भाई अमित जी, सादर आभार।

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, तरही मिसरे पर सुंदर ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई आपको। दूसरे शेर में बुझे घाव शब्द मुझे कुछ जचा नहीं क्योंकि घाव बुझता नहीं वरन् भरता है या हरा होता है।

आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन । उत्साहवर्धन व सुझाव के लिए आभार।

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आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

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