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सावन में बादल :लघुकथा: हरि प्रकाश दुबे

 

“खाना लगा दूं ! लेफ्टिनेंट साहब ?”

“अभी नहीं ! रूक जा जरा, बस यह चित्र पूरा ही होने वाला है, तब तक जरा एक पैग बना ला ‘ऑन द रोक्स’ I”

“क्या साब, आज दिन में ही...?”

“हूँ ! ... बेटा, एक काम कर सारे खिड़की दरवाजे बंद कर दे और लाइट्स जला दे I”

थापा ने ठीक वैसा ही किया, पैग बना लाया और बोला, “लीजिये साब, हो गयी रात I”

लेफ्टिनेंट साहब अपनी बैसाखी के सहारे मुस्कराते हुए आगे बढे, गिलास पकड़ लिया और बोले “अरे थापा, जरा देख तो सही चित्र कैसा बना है I”

“मेमसाहब”...! कहकर, थापा ऐसे दहाड़ें मारकर रोने लगा जैसे “सावन में बादल” फट गया हो !

 

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित"

 

 

 

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Comment by Hari Prakash Dubey on July 16, 2017 at 7:15pm

हार्दिक आभार आ. Mohammed Arif साहब! सादर 

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 16, 2017 at 4:25pm

अच्छी लघुकथा हुई है आदरणीय हरी प्रकाश जी | हार्दिक बधाई |

Comment by Mahendra Kumar on July 12, 2017 at 7:53pm

अच्छी लघुकथा है आ. हरि प्रकाश जी. प्रस्तुति थोड़ा और बेहतर हो सकती थी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.

Comment by Samar kabeer on July 11, 2017 at 10:53pm
जनाब हरि प्रकाश दुबे जी आदाब,बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Mohammed Arif on July 11, 2017 at 8:12am
आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी आदाब, बेहतरीन लघुकथा । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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