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मुहब्बतनामा (उपन्यास अंश)

दूसरी मुहब्बत के नाम

मेरे दूसरे इश्क़,

तुम मेरे जिंदगी में न आते तो मैं इसके अँधेरे में खो जाता, मिट जाता। तुम मेरी जिन्दगी में तब आये जब मैं अपना पहला प्यार खो जाने के ग़म में पूरी तरह डूब चुका था। पढ़ाई से मेरा मन बिल्कुल उखड़ चुका था। स्कूल बंक करके आवारा बच्चों के साथ इधर-उधर घूमने लगा था। घर वालों से छुपकर सिगरेट और शराब पीने लगा था। आशिकी, पुकार और भी न जाने कौन-कौन से गुटखे खाने लगा था। मेरे घर के पीछे बने ईंटभट्ठे के मजदूरों के साथ जुआ खेलने लगा था। दोस्तों के साथ मिलकर दुकानों से सामान चुराने लगा था। अपने कारखाने में काम करने वाले मजदूरों के साथ चिलम का कश लगाने लगा था। लड़ाई-झगड़ा, मारपीट, गुंडागर्दी, ऐसा कौन सा काम बाकी रह गया था जो मैंने नहीं किया। इन सबके बाद जो समय बचता उसमें मैं कॉमिक्स लेकर बैठ जाता। न जाने कितनी कॉमिक्स पढ़ डाली मैंने। कभी पापा की जेब से, कभी चाची के बक्से से, कभी दादी की तिजोरी से, कभी दादाजी से पैसे माँगकर मैंने न जाने कितनी कॉमिक्स खरीदकर या किराये पर लेकर पढ़ डाली। राज कॉमिक्स, मनोज कॉमिक्स, तुलसी कॉमिक्स, डायमण्ड कॉमिक्स, लोटपोट, चंदामामा, चंपक और भी न जाने कितनी कॉमिक्स सीरीज पढ़ डालीं। चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी, लम्बू-मोटू, छोटू-लम्बू, फौलादी सिंह, ताऊजी, फैण्टम, नागराज, सुपर कमाण्डो ध्रुव, डोगा, परमाणु, शक्ति, भेडिया, भोकाल, एन्थोनी, फ़ाइटर टोड्स, बांकेलाल, तिरंगा, शक्तिपुत्र, अंगारा, तौसी, जम्बू, योगा, बाज़, राम-रहीम, क्रुकबाण्ड, हवलदार बहादुर, कर्नल कर्ण, महाबली शेरा, टोटान और भी न जाने कितने पात्रों से मेरा परिचय हुआ। मेरा पहला प्यार खो जाने के बाद कहीं भी मेरा मन नहीं लगता था। मैं अपने साथियों के साथ अफीम और नींद की गोलियाँ लेने लगा। अगर मेरे मुहल्ले या आसपास के इलाके में हेरोइन उपलब्ध होती तो शायद मैं उसका नशा भी करने लग जाता। इन सब नशों ने मिलकर न जाने कब का मुझे मार दिया होता अगर मेरी जिन्दगी में तुम नहीं आते। उन दिनों की अपनी हालत पर कई वर्ष बाद मैंने ये ग़ज़ल कही।

बिन तुम्हारे होश में रहना सज़ा है।

बेखुदी भी बिन तुम्हारे बेमज़ा है।

रब से पहले नाम तेरा ले रहा हूँ,

है, ख़ुदा से आज भी मेरी नज़ा है।

तीन लोकों का तेरे बिन क्या करूँगा,

तू नहीं तो जो भी है वो बेवज़ा है।

आ रहा हूँ अब तुम्हारे साथ जीने,

लोग कहते आ रही मेरी कज़ा है।

माँगता मैं ताउमर तुझको रहूँगा,

दे, न दे, मुझको ख़ुदा उसकी रज़ा है।

मैं मुहल्ले भर में आवारा और बदमाश बच्चे के रूप में मशहूर हो चुका था। आये दिन मुहल्ले का कोई न कोई आदमी मेरे घर पर मेरी शिकायत लेकर पहुँचा रहता। शुरू-शुरू में तो मेरे घरवालों को लगा कि मारने-पीटने से मैं ठीक हो जाऊँगा पर बार-बार मुझे कुत्ते की तरह पीटने के बाद भी मेरे भीतर कोई सुधार न होता देखकर घरवालों ने भी हार मान ली और मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया। मैं सुबह स्कूल का बैग लेकर घर से निकलता तो रात को नौ बजे वापस आता। जिस दोस्त के घर जो मिलता खा लेता। न मिलता तो भी कोई बात नहीं। उन दिनों मेरी भूख-प्यास मर चुकी थी। धीरे-धीरे, मेरा शरीर सूखकर काँटा हो गया। मेरे शरीर में ट्युबर क्युलोसिस के प्रारंभिक लक्षण नजर आने लगे। मेरे गले में दोनों तरफ गाँठ पड़ गई। एक दिन मेरी दादी मुझे देखकर समझ गई कि मेरे शरीर में कुछ न कुछ गड़बड़ चल रही है और जबरन डॉक्टर के पास ले गई। मैं अपनी दादी से बहुत प्यार करता था क्योंकि मैं बचपन से उनका दुलारा था और मैं उनसे जब भी, जो भी माँगता था मुझे मिल जाता था। डॉक्टर ने मुझे नौ महीने लगातार दवा खाने के लिये कहा और दादी ने अपनी कसम दी कि अगर मैं समय पर दवा नहीं खाऊँगा तो उनका मरा मुँह देखूँगा।  

ऐसे वक्त में तुम मेरे मुहल्ले में रहने आये। अपनी पहली मुलाकात याद है तुम्हें। कॉमिक्स माँगने आये थे तुम मुझसे वो भी केवल सुपर कमांडो ध्रुव और नागराज की। मैंने तुम्हें देखा तो देखता ही रह गया। कितना मिलता जुलता था तुम्हारा चेहरा मेरे पहले प्यार से, बस तुम्हारी आँखें ज्यादा बड़ी थीं। तुमने कॉमिक्स अगले ही दिन लौटाने का वादा किया। तुम्हारे जाने के बाद देर तक मैं तुम्हारे बारे में सोचता रहा। जब मेरे दोस्त मुझे बुलाने आये तब जाकर मेरा दिवास्वप्न टूटा और मैं उनके साथ फिर से आवारागर्दी करने चल पड़ा। तुम कॉमिक्स ले गये और वापस करना भूल गये। मैं माँगना भूल गया। चार दिन बाद मुझे याद आया तो मैं कॉमिक्स वापस लेने तुम्हारे घर पहुँचा। मुझे तुमपर गुस्सा आ रहा था क्योकि तुम अपना वादा भूल गये थे और अब मुझे कॉमिक्स वापस करने पर चार दिन का किराया देना था।  

दरवाजा खटखटाने पर तुम्हारी मम्मी ने खोला तो मैंने अपने आने का कारण उन्हें बता दिया। उन्होंने कॉमिक्स वापस कर दी और मेरे माँगने पर चार दिन का किराया भी दे दिया। तभी तुम सजधज कर कहीं जाने के लिये बाहर आये और मुझे लगा सूरज धरती के और करीब आ गया है। आग की तरह आये तुम मेरी जिन्दगी में। जानते हो रासायनिक तौर पर आग क्या होती है। आग कार्बन और आक्सीजन की अभिक्रिया से निकलने वाला अवरक्त विकिरण और प्रकाश है। कार्बन और आक्सीजन हमारी हर कोशिका में हैं इस तरह आग भी हमारी हर कोशिका में है बिल्कुल पानी की तरह।

तुमने कहा, “मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूँ । मुझे तुम्हारे घर से और कॉमिक्स पढ़ने के लिये लानी है।”

मैंने कहा, “चलो।”

रास्ते में तुमने पूछा, “सिगरेट क्यूँ पीते हो।”

मैंने कहा, “ऐसे ही, मगर तुमने कहाँ देख लिया?”

तुमने कहा, “जब मैं छत पर थी तो मैंने तुम्हें घर के पिछवाड़े सिगरेट पीते हुये देखा था। सिगरेट छोड़ दो।”

मैंने पूछा, “क्यों?”

तुम्हारा जवाब था, “ऐसे ही।”

मैंने कहा, “ऐसे ही नहीं छोड़ सकता।”

तुमने कहा, “मैं कह रही हूँ इसलिये छोड़ दो।”

मैंने कहा, “ठीक है छोड़ दी।”

तुमने कहा, “सच।”

मैंने कहा, “तुम्हारी कसम।”

तुम हँस पड़े। मुझे लगा सूरज घरती पर गिर पड़ा। पसीने से मेरा सारा बदन भीग गया। तुम सचमुच आग की तरह आये मेरे जीवन में और प्यार की बुझी हुई गीली लकड़ी फिर से जल उठी।

तुमने न जाने क्या देखा मुहल्ले के इस बदमाश और बदनाम बच्चे में कि बार-बार कॉमिक्स लेने के बहाने मेरे घर आने लगे। मेरी तरह तुम्हें भी कॉमिक्स बहुत पसंद थी। धीरे-धीरे हम दोनों में बातचीत शुरू हुई और हम कॉमिक्स के चरित्रों के बारे में बात करने लगे। तुम्हारे बारे में सोच-सोच कर धीरे-धीरे मेरी आवारागर्दी कम होने लगी। तुमसे मिलने की चाहत में मैं अक्सर घर में ही रहने लगा। आखिरकार वो दिन भी आया जब हम दोनों अच्छे दोस्त बन गये। कॉमिक्स के चरित्रों से आगे निकलर हमारी बातें पढ़ाई तक पहुँच गईं। पर कॉमिक्स वापस लौटाना भूलने की तुम्हारी आदत नहीं गई। एक दिन जब मैं सुपर कमांडो ध्रुव की कॉमिक्स माँगने तुम्हारे घर पहुँचा तो तुम अपनी मम्मी और भाई के साथ बैठे कैरम खेल रहे थे। तुम्हारे पापा घर पर नहीं थे इसलिये एक खिलाड़ी कम पड़ रहा था।

मुझे देखकर तुमने पूछा, “तुम्हें कैरम खेलना आता है।”

मैंने कहा, “नहीं तो, मुझे नहीं आता। कैसे खेलते हैं इसे?”

उस दिन तुमने मुझे कैरम खेलना सिखाया।  तुम बहुत अच्छा खेलते थे और मैं बहुत बुरा इसलिये हम-तुम हमेशा एक टीम में रहे। अगर मैं अच्छा खिलाड़ी बन जाता तो तुम्हारे साथ टीम में न रह पाता इसलिये मैंने कभी कैरम अच्छा खेलने की कोशिश ही नहीं की। मैं आज भी कैरम अच्छा नहीं खेल पाता। वैसे सच कहूँ तो खेलों में मैं कभी ज्यादा अच्छा नहीं रहा। मेरा हैण्ड आई कोआर्डिनेशन हमेशा से खराब रहा है। डॉक्टर की दवा और तुम्हारे साथ ने धीरे-धीरे मेरे शरीर से टीवी के लक्षणों को निकालकर बाहर फेंक दिया।

एक दिन जब मैं कॉमिक्स माँगने तुम्हारे घर पहुँचा तो तुम घर पर अकेले थे। उस दिन तुम्हारे चेहरे पर एक ऐसा भाव था जो इससे पहले मैंने कभी नहीं देखा था। मैंने तुम्हारे मन की बात जानने की कोशिश की तो तुम्हारी आवाज़ मेरे दिमाग में गूँज उठी।

“न जाने इस बुद्धू की समझ में कब आयेगा। दिखने में इतना सुन्दर है मगर दिमाग से बिल्कुल पैदल है। कोई लड़की किसी लड़के को इतना भाव यूँ ही देती है क्या।”

मैं तुम्हारे दिमाग में डूबा हुआ था कि तुम्हारी आवाज ने मेरी तन्द्रा भंग की, “किस सोच में डूबे हुये हो?”

मैंने तुम्हारी तरफ देखा और मुस्कुराकर कहा, “बहुत सुन्दर लग रही हो।”

तुमने तुरन्त जवाब दिया, “सुन्दर लग रही हूँ या सुन्दर हूँ।”

“अरे मतलब सुन्दर तो तुम हो ही। आज बहुत ज्यादा सुन्दर लग रही हो।”

“मतलब सुन्दर हूँ मगर रोज़ बहुत कम सुन्दर लगती हूँ।”

“नहीं यार। तुम बहुत सुन्दर हो और रोज़ बहुत सुन्दर लगती हो। मेरी ही आँखें खराब हैं तो कभी-कभी इनको तुम थोड़ा कम सुन्दर, मेरा मतलब कम नहीं नार्मल सुन्दर दिखती हो।”

“अरे आँखों से याद आया कि तुम कॉमिक्स इतने पास से क्यूँ पढ़ते हो।”

“पास से क्या मतलब? इतनी दूर से तो पढ़ता हूँ और कितनी दूर से पढ़ूँ।”

“मजाक नहीं कर रही हूँ। मुझे लगता है तुम्हारी आँखें खराब हैं।”

“मुझे पता है तुम मजाक कर रही हो। तुम मजाक बहुत करती हो।”

“अरे यार मेरा भाई भी अपनी किताब आँखों के बहुत पास लाकर पढ़ता था। एक दिन पापा ने चेक करवाया तो पता चला कि उसकी आँख खराब है। तब से वो चश्मा पहनता है। वैसे चश्मे में तुम और अच्छे दिखोगे।”

“प्लीज ऐसा मजाक मत करो यार। मुझे नहीं पहनना है चश्मा। चश्मा पहनने वाले को सब चश्मिश और चारआँंख वाला कहते हैं।”

“अच्छा मत पहनना मगर एक बार जाकर अपनी आँख चेक करा लो। शहर में रेलवे स्टेशन के पास एक बहुत अच्छा आँख का अस्पताल है। मेरे भाई की आँख भी पापा ने वहीं चेक कराई थी।”

 “मैं नहीं जाऊँगा चेक कराने।”

“तुम्हें मेरी कसम।”

तुम भी न, बात-बात पर कसम दे देते थे। मुझसे क्या काम कैसे करवाना है ये तुम अच्छी तरह समझ चुके थे। मैंने साइकिल उठाई और शहर की तरफ चल पड़ा। चेक कराने पर पता चला कि मुझे निकट दृष्टि दोष है और यह दोष इतना बढ़ चुका है कि अगर मैं चेक न करवाता तो पढ़ते समय लगातार जोर पड़ने से मेरी आँखों की रोशनी और कम होती जाती। तुम नहीं जानते मुझे जबरन आँखों की जाँच करवाने भेजने के लिये  मैं आज भी तुम्हारा अहसानमंद हूँ। पूरे माइनस थ्री प्वाइंट फाइव पावर का चश्मा लगा था मुझे। पहली बार चश्मा लगाया तो कितनी खुशी मिली थी मुझे मैं बता नहीं सकता। ऐसा लगा जैसे किसी ने जादू से इस दुनिया को बदसूरत से खूबसूरत और धुँधली से एकदम स्पष्ट बना दिया हो।

चश्मा लगाकर मैं वापस तुम्हारे पास आया। तुम मुझे देखकर हँसने लगे। तुम्हारी मम्मी आधे घंटे तक आँखों की रोशनी वापस कैसे पायें इस विषय पर मुझे लेक्चर पिलाती रहीं। हाँ नहीं तो, अपने बेटे की आँखें तो ठीक कर नहीं सकीं और मुझे लेक्चर पिला रही थीं।

तुमने कहा, “मम्मी इन पर चश्मा अच्छा लगता है न।”

“हाँ। चश्मा सूट करता है इसके चेहरे पर।”

मगर इस चश्मे के चक्कर में मैं कॉमिक्स लेना तो भूल ही गया था। अगले दिन मैं फिर आया। तुम्हारी मम्मी रोज शाम को नियम से हनुमान मंदिर में सत्संग के लिये जाती थी। तुम्हारा भाई बाहर बच्चों के साथ खेलने गया हुआ था और तुम्हारे पापा आये नहीं थे। वैसे सच कहूँ तो मैंने जानबूझकर ये वक्त चुना था। मुझे पता था कि इस वक्त तुम घर में अकेले होगे।

मैंने कॉमिक्स माँगी तो तुम अपने बेडरूम से कॉमिक्स लेकर आये। मैंने कॉमिक्स के साथ तुम्हारा हाथ भी पकड़ लिया और तुम्हारे मन की बात जानने की कोशिश की। तुम्हारे दिमाग में में असमंजस था, डर था, थोड़ा सा गुस्सा था और थोड़ा सा प्यार था।

मैं धीरे से गुनगुनाया, “ऐ शमाँ, मुझे फूँक दे, न मैं मैं रहूँ, न तु तू रहे, यही प्यार का है दस्तूर।”

पहले तो तुम हँस पड़े फिर तुमने मेरा हाथ अपनी तरफ खींचा और अपने चेहरे को मेरे हाथों के बेहद करीब ले आये। पल भर में तुमने अपने होंठों को मेरे हाथों पर रखा और हटा लिया। उस दिन मैंने जाना कि अगर पल भर को छुआ जाय तो अंगारा भी रेशम जैसा लगता है।

मैंने कहा, “तुम्हारे होंठ रेशम जैसे हैं।”

तुमने हँसकर पूछा, “और मैं?”

मैंने कहा, “तुम आग जैसी हो। जब भी तुम्हारे पास आता हूँ मेरे भीतर का पानी उबलकर बाहर निकलने के लिए मचलने लगता है।”

“तो और पास मत आना वरना जल कर राख हो जाओगे।”

“और अगर कोई पतंगे की तरह जलकर राख ही हो जाना चाहे तो।”

तुम चुपचाप खड़े रहे। मैंने ध्यान से तुम्हारे चेहरे की तरफ देखा। तुम्हारे मन की बात जानने की कोशिश की तो पता  चला कि तुम्हारे मन में असमंजस था, डर था। तुम समझ नहीं पा रहे थे कि तुम्हें आगे बढ़ना चाहिये या नहीं। मैं तुम्हारे हाथ से कॉमिक्स लेकर चला गया।

कुछ दिन बाद जब मैं फिर से कॉमिक्स माँगने तुम्हारे घर आया तो तुम्हारे पापा घर पर ही थे और तुम्हें बीजगणित पढ़ा रहे थे। वो बिजली विभाग में कनिष्ठ अभियंता थे। कभी-कभी मुझे लगता है कि तुम जानबूझ कर कॉमिक्स वापस नहीं करते थे ताकि मैं कॉमिक्स लेने के बहाने तुम्हारे घर आऊँ।

मैं घर में घुसा तो तुम्हारे पापा ने पूछा, “कैसे आये बेटा?”

“कॉमिक्स वापस लेने आया हूँ अंकल।”, मैंने जवाब दिया।

“बेटा कभी कोर्स की किताब भी पढ़ लिया करो। जब देखो कॉमिक्स ही पढ़ते रहते हो। इधर आओ मुझे ये प्रश्न हल करके दिखाओ।”

मैं डरते-डरते तुम्हारे पापा के पास आया। उन्होंने मुझे बीजगणित का एक सवाल दिया। पूरा प्रश्न तो मुझे याद नहीं है पर शायद इस तरह का कुछ था कि सात साल पहले किसी की उम्र किसी और की उम्र की तिगुनी थी। सात साल बाद उसकी उम्र दोगुनी हो जायेगी तो दोनों की वर्तमान उम्र क्या है।

उन दिनों पढ़ाई-लिखाई में मेरा मन नहीं लगता था। दिन भर मैं कॉमिक्स और बाल उपन्यास पढ़ता रहता था। स्कूल भी  कम जाता था। जाता भी था तो मेरा ध्यान पढ़ाई में कम और तुम्हारे बारे में सोचने में  ज्यादा रहता था। मैं प्रश्न हल करना तो दूर उसकी समीकरण भी नहीं बना पाया। तुम्हारे पापा ने मुझे अपने पास बैठाकर आधा घंटा समझाया। मैं उनकी हर बात पर केवल हाँ में सर हिलाता रहा। अंत में उन्होंने मुझसे कहा कि तुम भी आ जाया करो पढ़ने। मैं इसके साथ-साथ तुमको भी पढ़ा दिया करूँगा। अंधा क्या चाहे दो आँखें। मुझे तो जैसे मनमाँगी मुराद मिल गई। रोज़ तुम्हारे साथ एक घंटे का समय बिताने से अच्छा और मेरे लिये क्या हो सकता था।

पढ़ने के बहाने हम रोज़ मिलने लगे। तुम पढ़ने में सचमुच बहुत अच्छे थे। तुम्हारे पापा ये देखकर बहुत खुश होते थे कि तुम जो प्रश्न दो मिनट में हल कर लेते थे वो प्रश्न मैं दस मिनट में हल कर पाता था। तुम्हारे पापा मुझे रोज़ किसी न किसी बात पर जलील करते थे। तुमसे प्यार होने के बाद मुझमें काफी सुधार हुआ था मगर फिर भी मैं मुहल्ले के आवारा और बदमाश बच्चों में ही गिना जाता था। जब किसी प्रश्न का उत्तर मैं न बता पाता तो वो कहते कि पढ़ लिख लो नहीं तो तुम भी अपने दूसरे दोस्तों की तरह यहीं घास छीलोगे या फिर कहते कि देखो ये लड़की होकर इतना अच्छा कर रही है और तुम लड़के होकर भी इतना खराब कर रहे हो, कुछ तो शर्म करो। लड़कों को तो लड़कियों से आगे रहना चाहिये और एक तुम हो कि लड़की से भी पिछड़े जा रहे हो।

इतनी बेइज्जती होने के कारण कभी-कभी तो मेरा मन करता था कि मैं तुम्हारे घर आना ही छोड़ दूँ मगर तुमसे मिलने की चाहत मुझे इस कदर बेचैन कर देती थी कि तुमसे मिलने के लिये मैं किसी भी तरह का अपमान झेलने के लिये तैयार था। कभी-कभी मेरा ये भी दिल करता था कि किताब और नोटबुक तुम्हारे पापा के मुँह पर पटककर भाग जाऊँ मगर तुम्हारा चेहरा देखकर मैं चुप रह जाता था। देखो नाराज मत हो जाना। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि तुम्हारे पापा के तानों से मेरा कोई फायदा नहीं हुआ। दरअसल मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि उनका बार-बार ताना मारना मेरे लिये बहुत अच्छा साबित हुआ। तुम्हारी वजह से मैं न उनसे लड़ सकता था न भाग सकता था इसलिये रोज़-रोज़ के उनके तानों से बचने का मेरे पास बस एक ही रास्ता था कि मैं पढ़ाई करना शुरू कर दूँ सो थक-हार कर मैंने पढ़ाई करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे प्रश्नों को हल करने की मेरी गति में सुधार होने लगा और एक दिन ऐसा भी आया जब गणित का एक प्रश्न मैंने तुमसे जल्दी हल करके दिखा दिया। फिर पढ़ते-पढ़ते एक वक्त ऐसा भी आया कि मुझे पढ़ाई अच्छी लगने लगी। वो मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ था। तुम नहीं जानते कि मुझे खींचकर उस मोड़ तक ले जाने के लिये मैं तुम्हारा और तुम्हारे पापा का किस कदर शुक्रगुजार हूँ। बचपन में नालायक समझा जाने वाला ये लड़का अगर किसी लायक बना है तो इसमें तुम्हारा और तुम्हारे पापा का बहुत बड़ा योगदान है।

जैसे-जैसे मैं सुधर रहा था मुझे देखने का तुम्हारा नज़रिया भी बदलता जा रहा था। अब मैं जब भी तुम्हारे दिमाग में झाँकता तो मुझे असमंजस और डर नज़र नहीं आता। मेरे लिये प्यार तो था तुम्हारे मन में मगर वैसा पागलपन वाला प्यार नहीं था जो मेरे मन में तुम्हारे लिये था।  शायद ऐसा इसलिये भी था क्योंकि उस दिन अकेले में मिलने के बाद मुझे तुमसे अकेले में मिलने का मौका दुबारा मिल ही नहीं सका और जो बात उस दिन अधूरी रह गई थी वो आगे बढ़ ही नहीं सकी। मैं ऐसे किसी मौके की तलाश में था जब घर में मेरे और तुम्हारे सिवा कोई न हो और मुझे अपने दिल की बात खुलकर कहने का मौका मिल सके। आखिरकार एक दिन मुझे वो मौका मिल ही गया।

उस दिन तुम्हारे पापा ने हम दोनों को पढ़ाना शुरू ही किया था कि उनके कार्यालय से फोन आ गया। पता चला वहाँ कोई दुर्घटना घट गई है और उन्हें फौरन जाना है। उन्होंने जल्दी-जल्दी हमारी विज्ञान की पुस्तक में दस सवालों पर निशान लगाया और बोले कि उनके आने से पहले हमें ये सवाल हल करके दिखाना है। तुम्हारी मम्मी हमेशा की तरह सत्संग में गई हुई थी और तुम्हारा छोटा भाई दोस्तों के साथ बाहर खेल रहा था। उनके जाने के बाद थोड़ी देर तक तो मैं सवालों को हल करने का नाटक करता रहा लेकिन फिर एक वक्त ऐसा भी आया जब मेरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया।

मैंने सर उठाकर तुम्हारी तरफ देखा। तुम सवालों में ऐसे डूबे हुये थे कि तुम्हें बाकी दीन-दुनिया की कोई खबर ही नहीं थी। शायद तुम ये सवाल मुझसे पहले हल करके दिखाना चाहते थे। मैं थोड़ी देर तक ध्यान से तुम्हारी तरफ देखता रहा। तुम्हारे दिमाग में बस सवाल ही चल रहे थे।  पर न जाने लड़कियों में ऐसी कौन सी छठी इंद्रिय होती है जो उन्हें अहसास दिला देती है कि कोई लड़का उन्हें घूर रहा है। तुमने सर उठाकर मेरी तरफ देखा। कुछ क्षण तो तुम्हें यह समझ में नहीं आया कि मैं सवाल हल करना छोड़कर तुम्हारी तरफ क्यों देख रहा हूँ। जब तुम समझे तो तुम्हारे चेहरे पर मुस्कुराहट उभर आई। मैंने तुम्हारा दिमाग पढ़ा। तुम्हारे मन में भी वही चल रहा था जो मेरे मन में चल रहा था।

मैंने धीरे से कहा, “आई लव यू।”

तुम्हारा खूबसूरत चेहरा शर्म से लाल हो गया था। मैंने ध्यान से तुम्हारी तरफ देखा। तुम्हारा हाल भी मेरे जैसा ही था बस फर्क इतना था कि तुम्हारे भीतर की शर्म तुम्हें बोलने से रोक रही थी। मैंने अपने दाहिने हाथ की उँगलियों में फँसा कलम नीचे रखकर तुम्हारे बायें हाथ की उँगलियो को छुआ। तुमने हाथ नहीं हटाया। मैंने अपनी उँगलियों को तुम्हारी उँगलियों के बीच में घुसाकर तुम्हारी हथेली पकड़ ली। तुमने भी अपनी उँगलियों से मेरी हथेली को कसकर पकड़ लिया।

मैंने कहा, “तुम भी कहो न।”

“क्या?”

“आई लव यू।”

“बट आई डोन्ट लव यू।”

मैंने तुम्हारा दिमाग पढ़ा। तुम्हारे मन में मेरे लिये प्यार ही प्यार था। इस बार कोई असमंजस कोई डर नहीं था। पर तुम्हारी आँखों में शरारत थी।

मैंने कहा, “मुझे पता है तुम मुझसे प्यार करती हो।”

“अच्छा। कैसे पता है?”

 “मैं तुम्हारा दिमाग पढ़ सकता हूँ।”

“ओ हो। दिमाग पढ़ सकते हो।”, कह कर तुम हँस पड़े।

“मेरी कसम खाकर कहो तुम मुझसे प्यार नहीं करती।”

“तुमने ही तो कहा था कि मैं बात-बात पर कसम देती रहती हूँ इसलिये मैंने कसम देना और कसम खाना बंद कर दिया है।”

“तो तुम मुझसे प्यार नहीं करती।”

“नहीं।”

मैंने तुम्हारा हाथ छोड़ दिया और उठकर खड़ा हो गया। मैंने अपनी किताब और नोटबुक समेटी और बाहर की तरफ जाने लगा। तुमने मेरा हाथ पकड़ लिया।

मैंने कहा, “जाने दो मुझे। तुम तो मुझसे प्यार करती नहीं तो मैं रुकूँ या जाऊँ तुम्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये। तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो।”

आखिरकार तुमने वो कह ही दिया जो मैं सुनना चाहता था। मैंने तुम्हारा हाथ पकड़कर तुम्हें अपनी तरफ खींचा और तुम्हें अपनी बाहों में भर लिया। न जाने कब से हम दोनों एक दूसरे को अपनी बाहों में भरने के लिये तरस रहे थे। न जाने कितनी देर हम एक दूसरे से लिपटे रहे। जब दरवाजे पर आहट हुई तब जाकर हम दोनों अलग हुये। तुम्हारा छोटा भाई दरवाजे से अंदर आया।

हम एक दूसरे से प्यार का इजहार कर चुके थे। इसके बाद तो हम दोनों अकेले में मिलने का मौका खोजते रहते थे। जब भी हमें अकेले में मिलने का मौका मिलता मैं तुम्हें अपनी बाहों में भर लेता और तुम चिंगारी बनकर धीरे-धीरे मेरे शरीर को सुलगाने लगते। एक दिन ऐसा भी आया जब मैं जलकर राख हो गया। उस राख से तुमने दुबारा मेरा निर्माण किया। अब मैं तुम्हारा था सिर्फ़ तुम्हारा।

वो दिन याद है तुम्हें जब मेरे आई लव यू कहते ही तुमने मुझसे पूछा था, “अब तक कितनी लड़कियों को आई लव यू कह चुके हो?”

मैंने जवाब दिया, “पहली बार तुमसे ही आई लव यू बोला है मैंने। तुम मेरा पहला प्यार भले ही नहीं हो मगर आई लव यू मैंने पहली बार तुमसे ही बोला है।”

तुमने पूछा, “अच्छा तो पहला प्यार कौन है तुम्हारा?”

“है नहीं, था।”

और तब मैंने तुम्हें अपने पहले प्यार की कहानी सुनाई थी। उसे सुनकर तुम कितना रोये थे याद है? अच्छा छोड़ो भी रोने-धोने वाली बातें तुम्हें वो गाना याद है तुम्हें जो तुम मुझे देखकर गुनगुनाते थे। कभी तू छलिया लगता है, कभी आवारा लगता है, कभी दीवाना लगता है…., और मैं जवाब में गाया करता था, तू जो अच्छा समझे, ये तुझपे छोड़ा है, तुझसे तो मैंने जीवन भर का नाता जोड़ा है।

तुमने मेरे जीवन में आकर मुझे जीने का मकसद दे दिया। हर समय तुम्हारे साथ रहने की कोशिश करते रहने के कारण आवारा लड़कों का साथ छूट गया। तुम्हें पाने के लिये मेरा कुछ बनना जरूरी था इसलिये मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। मेरी सारी बुरी आदतें छूट गईं। मैं नालायक बच्चे से अच्छा बच्चा बन गया।

याद है एक दिन जब तुम बेला देवी के मंदिर में मिले थे। मैं अपने मम्मी-पापा के साथ गया था और तुम अपने। हम दोनों चोरी-चोरी एक दूसरे की तरफ देख रहे थे।

दूसरे दिन जब कॉमिक्स लेने तुम मेरे घर आये तो तुमने मुझसे पूछा, “कल क्या माँगा भगवान से?”

मैंने जवाब दिया, “तुम्हें।”

तुमने कहा, “मैं तो तुम्हें मिल गई हूँ।”

मैंने कहा, “जीवन भर के लिये माँगा है।”

कितना प्यार करने लगे थे हम दोनों एक दूसरे को। कच्ची उम्र का प्यार कितना बेदाग कितना निश्छल होता है। कितने सारे बेवकूफी भरे काम करते थे हम दोनों। याद है वो प्रेमपत्र जो मैंने अपनी उँगली के खून से तुम्हें लिखा था।

छुट्टियों में जब तुम अपने मामा के यहाँ चले गये तो मुझ पर क्या बीती मैं बता नहीं सकता। रोज तुम्हारे सपने आते थे मुझे। उस समय तो मोबाइल भी नहीं था। बस तुम्हारे पापा कभी मेरे पापा से घर का हाल-चाल जानने आया करते थे तो मैं भी किसी बहाने से उनके पास जाकर सुन लेता था। जब तुम वापस आये तो मैं बता नहीं सकता कितनी खुशी हुई थी मुझे। एक पल को तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ था कि ये सच है या मैं रोज़ की तरह तुम्हारे आने का सपना देख रहा हूँ। तुम सलवार सूट में बेड पर लेटे लेटे कोई किताब पढ़ रहे थे। घर में सब लोग थे। मैं आकर तुम्हारे पैरों के पास बैठ गया। तुम किताब में डूबे होने का नाटक करते रहे। कुछ देर बाद मैंने अपना हाथ अपनी पीठ के पीछे ले जाकर धीरे से तुम्हारा अँगूठा दबा दिया। तुमने मुस्कुराकर अपना पैर पीछे खींच लिया। मैं उठ कर जाने को हुआ तो तुमने फिर अपना पैर फैला दिया।

उस समय कितना विश्वास था मुझे ईश्वर पर। ऐसा लगता था जैसे जो कुछ भी मैं ईश्वर से माँगूगा मुझे मिल जायेगा। पर मैं कितना ग़लत था। कुछ ही महीने बाद तुम्हारे पापा का तबादला लखनऊ हो गया। याद है जब मैंने तुमसे कहा था कि चलो कहीं भाग चलते हैं अब मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊँगा तो तुम कितने उदास हो गये थे। माँ बाप की दुलारी बिटिया थे तुम। उम्र भी कितनी, महज़ पंद्रह साल। तुमने बिल्कुल सही निर्णय लिया था। हम भागते भी तो कहाँ जाते, क्या करते? कुछ दिन भटककर लौट आते और बदनामी के सिवा तुम्हें और तुम्हारे परिवार को कुछ भी हासिल नहीं होता।

याद है मैं तुम लोगों को छोड़ने प्रतापगढ़ स्टेशन आया था। ट्रेन चल पड़ी और तुम खिड़की से झाँक कर मेरी ओर देखते हुये देर तक हाथ हिलाते रहे। मैं पत्थर की मूरत की तरह बिना पलकें झपकाये प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ा होकर तुम्हें देखता रहा, तब तक, जब तक कि ट्रेन मेरी आँखों से ओझल नहीं हो गई। काश उन दिनों मोबाइल होते!

बरसों बाद इसी दृश्य को याद कर मैंने एक नवगीत लिखा।

ट्रेन समय की

छुकछुक दौड़ी

मज़बूरी थी जाना

भूल गया सब

याद रहा बस

तेरा हाथ हिलाना

तेरे हाथों की मेंहदी में

मेरा नाम नहीं था

केवल तन छूकर मिट जाना

मेरा काम नहीं था

याद रहेगा तुझको

दिल पर

मेरा नाम गुदाना

तेरा तन था भूलभुलैया

तेरी आँखें रहबर

तेरे दिल तक मैं पहुँचा

पर तेरे पीछे चलकर

दिल का ताला

दिल की चाबी

दिल से दिल खुल जाना

इक दूजे के सुख-दुख बाँटे

हमने साँझ-सबेरे

अब तेरे आँसू तेरे हैं

मेरे आँसू मेरे

अब मुश्किल है

और किसी के

सुख-दुख को अपनाना

तुम्हारे जाने के कुछ साल बाद जब मैं आईआईटी की कोचिंग करने लखनऊ गया तो अक्सर लखनऊ की सड़कों पर मेरी नज़रें तुम्हें खोजती रहती थीं। मुझे तुम्हारा पता नहीं मालूम था और तुमने मुझे कभी कोई चिट्ठी लिखी नहीं। कई बार हजरतगंज में टहलते हुये मुझे लगा कि जैसे तुम मेरे पीछे-पीछे चल रहे हो मगर जब मुड़कर देखा तो कोई और ही लड़की थी। एक बार एक कार में बिल्कुल तुम्हारी नीले रंग वाली टीशर्ट जैसी टीशर्ट पहने एक लड़की दिखी तो मुझे लगा तुम्हीं हो। मैं कार के पीछे-पीछे दौड़ा तो न जाने कैसे उस लड़की को पता चल गया कि कोई उसकी तरफ देख रहा है और वो मुड़कर मेरी ओर देखने लगी। उस दिन मेरी आखिरी उम्मीद भी टूट गई।

तुम्हारे जाने के बाद मैंने दर्द भरे गाने सुनने शुरू कर दिये। चुनिन्दा शायरों की एक किताब भी ले आया। कॉमिक्स पढ़ना कम कर दिया और दर्द भरी कविताएँ, गीत और शे’र-ओ-शायरी पढ़कर मन बहलाने लगा। उन दिनों महादेवी वर्मा की एक कविता मुझे कहीं से मिली जो मुझे बहुत अच्छी लगी।

विस्तृत नभ का कोई कोना

मेरा न कभी अपना होना

परिचय इतना इतिहास यही

उमड़ी कल थी मिट आज चली

मैं नीर भरी दुख की बदली।

तुम नहीं जानते तुमसे बिछड़ने के बाद इस कविता ने मेरा कितना साथ दिया। तुम जहाँ भी हो सदा खुश रहो, आबाद रहो।

   
तुम्हारा...

--------------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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