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लूटा गया था रात में अस्मत को जिसकी ढब -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/१२२१/२१२


कहते हैं झूठ  ज़ुल्म  हिरासत  में आ गया
हाँ न्याय ज़ालिमों की हिमायत में आ गया।१।

*
लूटा गया था रात में अस्मत को जिसकी ढब
उसका ही नाम दिन को सिकायत में आ गया।२।

*
अन्धा है न्याय  जानता  होगी सजा नहीं
बेखौफ जुल्मी यूँँ न अदालत में आ गया।३।

*
बचना था जेल जाने  से  ऊँँची पहुँँच के बल
शासन की छाँँव पा वो सियासत में आ गया।४।

*
चुप क्यों हो नदिया  झील  समन्दर भला कहो
दलदल भी जिसको  आज  हरारत में आ गया।५।

*
हाकिम हुआ मगर न हुई जन की पीर निज
नीरो सा फिर ये कौन  रियासत में आ गया।६।

*

मौलिक/अप्रकाशित

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 15, 2020 at 6:24am

आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए आभार।

Comment by सालिक गणवीर on November 13, 2020 at 9:50am

भाई लक्ष्मण धामी जी

सादर अभिवादन

एक और बढ़िया ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाइयाँ स्वीकारें.

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 3, 2020 at 9:32pm

आ. भाई ब्रिजेश जी सादर आभार....

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 3, 2020 at 9:26pm

इंगित मिसरे को इस प्रकार देखियेगा

"चुप क्यों हो नदिया झील समन्दर उसी पे तुम

दलदल जो बात सुन के हरारत में आ गया"

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 3, 2020 at 8:45pm

बहुत बढ़िया आदरणीय धामी जी...

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 3, 2020 at 5:23pm

आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल आपकी उपस्थिति व स्नेह के बाद ही मुकम्मल हो पाती है । सादर आभार ..

इंगित मिसरे को इस प्रकार देखियेगा

"चुप क्यों हो नदिया झील समन्दर पे तुम

दलदल जो बात सुन के हरारत में आ गया"

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 3, 2020 at 5:17pm

आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल आपकी उपस्थिति व स्नेह के बाद ही मुकम्मल हो पाती है । सादर आभार ..

इंगित मिसरे को इस प्रकार देखियेगा

"दलदल जो बात सुन के हरारत में आ गया"

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 3, 2020 at 5:14pm

आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति व सराहना के लिए आभार।

Comment by Samar kabeer on November 3, 2020 at 11:31am

जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।

'दलदल भी जिसको  आज  हरारत में आ गया'

ये मिसरा वाक्य की दृष्टि से अधूरा लग रहा है, देखियेगा ।

Comment by TEJ VEER SINGH on November 3, 2020 at 8:42am

हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी। लाज़वाब गज़ल।

हाकिम हुआ मगर न हुई जन की पीर निज
नीरो सा फिर ये कौन  रियासत में आ गया।६

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