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आदरणीय विजय सर चितन के लिए प्रेरित करती आत्मबोध कराती इस सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
धन्यवाद तो आदरणीय मैं भी कह रहा हूँ.
सादर
किस तरह की ’आज़ादी’ कोई चाहता है, जबतक यह स्पष्ट न हो तो आज़ादी उच्छृंखलता अधिक प्रतीत होती है.
दाना-पानी का मिलना, मगर उड़ने को न मिलना और तदनुरूप छटपटाहट जैसे प्रतीक इस प्रस्तुति में सन्निहित हैं, वे आधिकारिक दासता का द्योतक हैं. फिर तो ऐसा कुछ विशेष वर्ग और उसकी अवस्था की बात है. यानी, याह भाव-संप्रेषण सबके लिए नहीं है. फिर तो, जिनके लिए यह ’अपेक्षाएँ’ हैं, उनको तो इस कविता में होना था. अन्यथा ऐसे में कोई संप्रेषण अव्यावहारिक बातें करता हुआ-सा प्रतीत होता है, या, अपने मन की न ’पाने’ या ’कर पाने’ की कुण्ठा को अभिव्यक्त करता हुआ प्रतीत होता है. जबकि, इस कविता के रचनाकार आदरणीय विजय शंकर जी को जितना मैं उनकी कविताओं के माध्यम से जानता हूँ, वे ऐसे किसी भावबोध को स्वर नहीं देते.
इस हिसाब से रचना अपने कर्ता या प्रथम पुरुष के बिना खूब बोलती हुई भी स्पष्ट नहीं हो पा रही. बाकी सारा कुछ तो श्लाघनीय ही है.
शुभेच्छाएँ.
हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ विजय शंकर जी!बेहतरीन प्रस्तुति!मनुष्य की मजबूरियों का संकेतों से सटीक वर्णन!
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