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ग़ज़ल - सलीम रज़ा रीवा

ग़ज़ल 

.

क्यूँ  कहते हो कोई कमतर होता है !
दुनिया  में  इन्सान बराबर होता है !
 
पाकीज़ा  जज़्बात  है  जिसके सीने में !
उसका  दिल  भरपूर मुनौअर होता है !
 
ज़ाहिद का क्या काम भला मैख़ाने  में !
मैख़ाना तो  रिंदों  का घर  होता है !
 
जो  तारीकी  में  भी  रस्ता दिखलाए !
वो  ही हमदम  वो ही रहबर  होता है! 
 
टूटा -फूटा  गिरा-पड़ा कुछ  तंग सही !
अपना घर  तो अपना ही घर होता है! 
 
ताल  में  पंछी पनघट गागर चौपालें !
कितना सुन्दर गाँव का मंज़र होता है! 
 
कैद  करो  न  इनको पिंजरों में कोई !
अम्न  का पंछी "रज़ा''  कबूतर होता है! 

 

SALIM RAZA REWA

 

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by SALIM RAZA REWA on August 14, 2013 at 9:49pm

PARAM ADRNIY Saurabh Pandey ji aap der se hi sahi hamen duaaon se navaja to khushi hui

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 14, 2013 at 3:21pm

मैं आपकी ग़ज़ल पर विलम्ब से आ पा रहा हूँ, आदरणीय रज़ा साहब. उम्मीद है, परेशानी को समझेंगे 

आपकी ग़ज़ल अच्छी हुई है. मतले ने ही बाँध लिया. दो तरह के भाव आ रहे थे. आखिरश आपका कहा अपनी बात मनवा गया .. :-))

इन अशार क् लिए विशेष बाई व दाद कुबूल करें --

टूटा -फूटा  गिरा-पड़ा कुछ  तंग सही !
अपना घर  तो अपना ही घर होता है! 
 
ताल  में  पंछी पनघट गागर चौपालें !

कितना सुन्दर गाँव का मंज़र होता है! 

वाह वाह .. .

Comment by vandana on August 14, 2013 at 7:45am
जो  तारीकी  में  भी  रस्ता दिखलाए !
वो  ही हमदम  वो ही रहबर  होता है! 
 
टूटा -फूटा  गिरा-पड़ा कुछ  तंग सही !
अपना घर  तो अपना ही घर होता है! 
 
ताल  में  पंछी पनघट गागर चौपालें !

कितना सुन्दर गाँव का मंज़र होता है! 

बहुत शानदार गज़ल 

Comment by aman kumar on August 13, 2013 at 2:44pm

एक एक शेर जानदार है , जिन्दा है सलीम भाई बहुत अच्छा .....

Comment by SALIM RAZA REWA on August 12, 2013 at 11:00pm

Rajesh Kumar Jha ji bahut bahut sukriya aap ko gazal pasand aai

 

Comment by राजेश 'मृदु' on August 12, 2013 at 4:09pm

वाह-वाह आदरणीय, आनंद आ गया इस गज़ल को पढ़कर

Comment by SALIM RAZA REWA on August 12, 2013 at 9:06am

NEERAJ JI GAZAL ACHHI LAGI SUKRIA.MERA LIKHNA SARTHAK HO GAYA THANKS,,ARUN JI AAP KO JO DO SHER AAPKO PASAND AAE HAME BHI YE BEHAD AZEEJ HNAN, BAHAN ANUPMA JI KO BHI YAHI SHER PASAND AAA SHUKRIYA, HAMARI KOSHISEN SARTHAK HO GAI,,

 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 11, 2013 at 5:23pm

आदरणीय सलीम रज़ा साहब, सुंदर गजल पर , दाद कुबूल कीजिये

Comment by annapurna bajpai on August 11, 2013 at 1:44pm
टूटा -फूटा  गिरा-पड़ा कुछ  तंग सही !

अपना घर  तो अपना ही घर होता है!.....................

 

बहुत ही बढ़िया अशआर ,मन पर गहरी छाप छोड़ता है बहुत बधाई आपको आदरणीय रज़ा भाई जी ।

Comment by अरुन 'अनन्त' on August 11, 2013 at 12:27pm

वाह आदरणीय बेहद सुन्दर ग़ज़ल हुई है सभी अशआर शानदार बन पड़े हैं बधाई स्वीकारें. आपसे इल्तजा है ग़ज़ल की बहर भी लिख देते तो हमे भी कुछ ज्ञान हो जाता.

टूटा -फूटा  गिरा-पड़ा कुछ  तंग सही !
अपना घर  तो अपना ही घर होता है! 
 
ताल  में  पंछी पनघट गागर चौपालें !
कितना सुन्दर गाँव का मंज़र होता है!  इन अशआरों हेतु विशेष तौर से बधाई स्वीकारें

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