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ग़ज़ल

2122 ----2122 -----2122 ----212

आप की गलियों के कुछ मंज़र हमें अच्छे लगे 

ठोकरें खाते हुए पत्थर हमें   अच्छे लगे 

सुनके हर्फ़े आरज़ू माथे पे शिकनें पड़ गयीं

हुस्न के बिगड़े हुए तेवर हमें अच्छे लगे 

इस तरफ आहो फ़ुग़ाँ और उस तरफ रंगीनियाँ

अहलेज़र से मुफ़लिसों के घर हमें अच्छे लगे 

नर्म गद्दों के बजाये सो गए इक टाट पर

फ़ाक़ाकश मज़दूर के बिस्तर हमें अच्छे लगे 

वक़्ते रुख़सत ग़म के मारे आगये जो आँख में

वो सरे मुज़्गाँ हसीं गौहर हमें अच्छे लगे

झुक गए जो ज़ुल्म के आगे वो सर सर ही न थे

जो वतन पे कट गए वो सर हमें अच्छे लगे 

कारवां तस्दीक़ जो मंज़िल से पहले लूट लें

किस तरह कह दें के वो रहबर हमें अच्छे लगे 

(मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment by Samar kabeer on January 13, 2016 at 10:30pm
जनाब तस्दीक़ अहमद जी,आदाब,जनाब गिरिराज भंडारी साहिब और जनाब निलेश 'नूर' साहिब दोनों ही सही कह रहे हैं ।
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on January 13, 2016 at 9:35pm

जनाब मुकेश श्रीवास्तव  साहिब ,.... हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया /

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on January 13, 2016 at 9:34pm

जनाब नीलेश साहिब ,.... हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया / बद्र साहिब के जिस शेर का आपने ज़िक्र किया है उस में आँखों शब्द का इस्तेमाल किया गया है / पहले मिसरे  की जब उर्दू में लिख कर तक़्ती करेंगे तो आँखों शब्द में हे और नून गुनना ही गिरेंगे इन दोनों के बीच वाउ नहीं गिरेगा / जैसा कि आदरणीय गिरराज साहिब ने फ़रमाया उर्दू और हिंदी लिपि का फ़र्क़ है /...... सादर

Comment by MUKESH SRIVASTAVA on January 13, 2016 at 3:58pm

झुक गए जो ज़ुल्म के आगे वो सर सर ही न थे

जो वतन पे कट गए वो सर हमें अच्छे लगे  waah waa mitra achhee gazal

Comment by Nilesh Shevgaonkar on January 13, 2016 at 8:59am

अच्छी ग़ज़ल हुई है .. बधाई ..
बद्र साहब कहते हैं.. 
कभी यूँ भी आ मेरी आँखों में कि मेरी नज़र को खबर न हो 
मुझे इश्तेहारों सी लगती हैं ये मुहब्बतों की कहानियाँ ...
यहाँ खों और रों में वाव और नून गुन्ना दोनों हैं फिर भी गिरा के पढ़ा गया है 
सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 13, 2016 at 7:14am

आदरणीय तस्दीक भाई , मुझे लगता है , नियम मे ये अंतर लिपि ( भाषा )  के कारण आ रहा है , उर्दू लिपि मे वाउ और नून गुन्ना दोनो हरूफ मे गिने जाते हैं , लेकिन हिन्दी लिपि मे  अनुस्वार ( ऊपर बिन्दी लगाना ) को हर्फ मे नही गिनते । और  इसमे  ओ की मात्रा के जैसे मात्रा गिरा सकते हैं , अभी आप हिन्दी लिपि मे लिख रहे हैं , अतः आप मज़दूरों मे  रों की मात्रा गिरा सकते हैं , ऐसा मेरा ख़याल है । बाक़ी आप जैसा सही समझें वैसा कीजिये ।

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on January 12, 2016 at 10:13pm

मोहतरम जनाब गिरिराज साहिब ,  ..... मश्वरे और हौसला अफ़ज़ाई का शुक्रिया। .... जहाँ तक मेरी जानकारी है नून गुनना और वाउ एक  साथ नहीं गिराये जा सकते। .... मज़दूरों में दोनों एक साथ हैं


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 12, 2016 at 4:27pm

आदरणीय तस्दीक भाई , बेहतरीन ग़ज़क हुई है , सभी अशआर अच्छे लगे , आपको गज़ल के लिये दिली बधाइयाँ ।

मेरे खयाल से मज़दूरों करने से बहर से बाहर नही होगा मिसरा

फ़ाक़ा कश मज़ /  दूरों के बिस/ तर हमें अच/ छे लगे    --  रों मे मात्रा गिराई जा सकती है , ये नियम के खिलाफ नही है ।

Comment by मंजूषा 'मन' on January 12, 2016 at 9:30am
बहुत खूब जयनित जी
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on January 11, 2016 at 10:21pm

जनाब जयनित कुमार  साहिब , हौसला अफ़ज़ाई का शुक्रिया। . ....

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