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चिन्तन-प्रश्न

आस्था की अनवस्थ रग को सहलाते

सचाई के अब भयावने-हुए मुख पर

उलझनों के ताल के उस पार उतर कर

अचानक यह कैसा उठा प्रश्नों का चक्रवात

चिंता की हवाओं का मंडराता विस्तार

एकाएक

यह क्या हुआ ?

कैसा खतरनाक है यह

सतही ज़िन्दगी का सतही स्तर

बाहरी चीख-चिल्लाहट 

सुनाई नहीं देता है आत्मा का स्वर

ऐसे में असहज है कितना

द्वंद्व-स्थिति में संकल्प-शक्ति से

किसी भी सत्य को अनुभूत करना

धोखों से भरे मस्तक-कुण्ड में

निस्वार्थ, बिलकुल निस्वार्थ

सचेत रह कर

किसी दरिद्र की शून्य-आँखों में देख

स्वयं भूखे रह कर 

उसकी घनीभूत भूख को महसूस करना

माया के मोहजाल के झुठलावे के शिखर पर

अविवेक के अस्वीकृत शिकंजे में

पल-पल मुखमंडल पर स्थापित

न छिप सकती रेखाओं को नकारते

जो कोई पूछे कि "कैसे हो"

तो क्या सहज नहीं कह देते हैं हम

एक छोटा-सा लगता-सा पर बड़ा है जो

असुविचारित झूठ ...

"ठीक हूँ मैं"

ज़माने में ज़माने के हो जाने के

असफ़ल प्रयास में ऐसे

मामूली सचाइयों की उत्पीड़क तंग सीढ़ियों से

उतरते-लड़खड़ाते-गिरते

समय-असमय हम आदतन चुपचाप

ईमान की गरदन नहीं मरोड़ देते क्या ?

                    -------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on November 4, 2019 at 5:19pm

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, प्रिय मित्र सुरेन्द्र नाथ सिंह जी

Comment by vijay nikore on November 4, 2019 at 5:18pm

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, प्रिय भाई समर कबीर जी

Comment by नाथ सोनांचली on November 1, 2019 at 1:26pm

आद0 विजय निकोर जी सादर अभिवादन। इस बेहतरीन प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार कीजिये।

Comment by Samar kabeer on October 28, 2019 at 3:58pm

प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,बहुत उम्दा प्रभावशाली रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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