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"मैं आ रही हूँ माँ..."

कितनी बार कहा था माँ ने "बेटा! बस एक बार तुम ग्रेजुएट हो जाओ फिर जहाँ भी किस्मत आजमाना चाहोगी तुम्हें रोकूँगी नही। ये पूरा का पूरा आकाश तुम्हारा हैं।" किंतु तब मैंने उनकी बातों को यूंही हवा में उड़ा दिया था।

संयुक्त परिवार में घर की सबसे खूबसूरत बेटी थी वह। बस! यही ज़रूर उसे ले डूबेगा कहाँ जानती थी। बारहवी के बाद ही अपनी रिश्तेदार के घर इस नगरी में आयी तो वापस लौटी ही नहीं कभी। माँ समझा-बुझाकर ले जाने आई थी उसे तब उन्हें झिड़कते हुए कहा था...

"तुम भी तो परास्नातक और लॉ ग्रेजुएट हो । क्या कर लिया आज तक।" मैं अपने हिसाब से...

"ठीक हैं तुम अपने मन की करना। पहले पढाई पूरी कर लो।" माँ ने बीच में ही टोकते हुए कहा था।

" माँ! यहाँ किताबी ज्ञान नहीं खूबसूरती और सुंदर देहयष्टि काम आती हैं । आप वापस लौट जाओ ।करीब-करीब चिल्लाते हुए कहा था।

और वे खाली हाथ लौट गयी थी कभी ना आने के लिए. बस खबर आई थी कि वह ...नहीं रही।

वो सीढ़ियाँ चढती रही किंतु अकेली और फिर बहुत कम सालों में ही वक्त हाथ से फिसल गया ।

उसके चारों और अँधेरा छाया हुआ था।

खुली खिडकी से दिखने वाला आसमां जहाँ कभी असंख्य तारों की जगमगाहट थी आज घूसर नजर आने लगा।


मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on March 15, 2020 at 11:55am

मुहतरमा नयना (आरती) कानिटकर जी आदाब, अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।

कृपया ध्यान दे...

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