ता-उम्र उजालों का असर ढूढ़ता रहा ।
मैं तो सियाह शब में सहर ढूढ़ता रहा ।।
अक्सर उसे मिली हैं ये नाकामयाबियाँ ।
मंजिल का जो आसान सफ़र ढूढ़ता रहा ।।
मुझको मेरा मुकाम मयस्सर हुआ कहाँ ।
घर अपना तेरे दिल में उतर ढूढ़ता रहा ।।
रुसवाइयों के दौर से गुजरा हूँ इस तरह ।
बस एक मुहब्बत की नज़र ढूढ़ता रहा ।।
तुमको अना के दौर में इतनी खबर नहीं ।
कोई तुम्हारे दिल की डगर ढूढ़ता रहा ।।
इन साहिलों को छू के गयी थी जो एक दिन ।
सागर की मैं वो उठती लहर ढूढ़ता रहा ।।
लूटा है कुर्सियों ने तेरे देश को मगर ।
अखबार में छपी ये ख़बर ढूढ़ता रहा ।।
शायद नहीं था इल्म जो तुमको समझ सकूँ ।
नादां था राख में जो शरर ढूढ़ता रहा ।।
नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अ प्रकाशित
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