प्लेन उड़ाती लडकियां
(लघुकथा)
एयरोनॉटिकल शो। किस्म किस्म के हवाई जहाज़ आसमान में करतब दिखाते उड़े जाते हैं। अधिकतर प्लेन लड़कियां उड़ा रही हैं।
"पापा, पापा... मैं भी प्लेन उड़ाऊंगी...।" एक छोटी बच्ची अपने पिता से ज़िद कर रही है।
लड़कियां आसमान में प्लेन उड़ा रही हैं। लड़कियां आसमान छू रही हैं। लड़कियों का आत्मविश्वास आसमान पर है और एक छोटी बच्ची अपने पिता से ज़िद कर रही है, "पापा, पापा... मैं भी प्लेन उड़ाऊंगी।"
लोग कहते हैं, “लड़कियों को पंख लग गये हैं। लड़कियां परियाँ बन गई हैं।”
"एक आवश्यक सूचना..." एक अनाउंसमेंट हो रहा है।
सब कुछ स्थिर हो गया है। उड़ते हुए हवाई जहाज आसमान में ही ठहर गए हैं। समय थम गया है और एक छोटी बच्ची अपने पिता से ज़िद कर रही है, "पापा, पापा... मैं भी प्लेन उड़ाऊंगी।"
"एक आवश्यक सूचना... लड़कियां अपने घर पहुँचें... उनके माता पिता उनका इंतजार कर रहे हैं। लड़कियां अपने घर पहुंचें... रिश्ते वाले देखने आये हैं। लड़कियां अपने घर पहुंचें..." अनाउंसमेंट लगातार जारी है।
वे प्लेन जिन्हें लड़कियां उड़ा रही हैं, एक एक करके ज़मीन पर गिरने लगे हैं; और एक छोटी बच्ची अपने पिता से ज़िद कर रही है, "पापा, पापा... मैं भी प्लेन उड़ाऊंगी।"
... "यह तो केवल एक दु:स्वप्न है।" मनोचिकित्सक कहता है।
"हां..., लेकिन सपनों का स्रोत तो हमारा अपना परिवेश होता है न?" मैं पूछता हूँ।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आद0 MirzaHafizBaig जी सादर अभिवादन। बहुत बढ़िया सन्देश परक लघुकथा लिखी आपने। बधाई स्वीकार कीजिये।
बहुत ही अच्छी लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई, जनाब मिर्ज़ा हफ़ीज़ बैग साहिब ।
हमारा अपना परिवेश होता है,तो परवरिश के प्रति ज़िम्मेदारी भी होती है।उन्है बुलंदियों की ऊँचाई छूने के अवसर मुहैया करना भी परिवार की ज़िम्मेदारी होती है ।सारगर्भित कथा के लिये बधाई आद० मिर्ज़ा हाफ़िज़ बैग जी ।
जनाब शेख शहज़ाद उस्मानी जी, आदरणीय तेजवीर सिंह साहब, बहन नीलम उपाध्याय और मोहतरम जनाब समर कबीर साहब मैं दिल से आप सब का शुक्रगुज़ार हूं, आप सब ने इसे पढ़ा और अपनी कीमती राय दी।
जनाब मिर्ज़ा हफ़ीज़ बैग साहिब आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग जी, नमस्कार। बेहतरीन लघुकथा की प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
हार्दिक बधाई आदरणीय मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग जी। बेहतरीन मनोवैज्ञानिक लघुकथा।बड़ी बेबाकी से समाज को आईना दिखाया है आपने।
आदाब। क्या कहूं साहिब। साइक्लोज़िकल शो! गर्ल/वुमन-हरेशमेंट शो! पतंग शो! उड़ती-उड़ाती, कटती-कटवाती पतंगें! परम्परागत सामाजिक ढांचे में बंधती, लिपटी, लिपटवाती लड़की, युवती, औरत! ढाक के तीन पात। समानता, विकास पर ग़ज़ब सांकेतिक दृष्टि! बेहतरीन सृजन हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय मिर्ज़ा हाफ़िज़ बेग साहिब।
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