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ग़ज़ल (गणेश जी बागी)

पाँच बरस तक कुछ न कहेंगे कर लो अपने मन की बाबू ।
बात चलेगी, तो बोलेंगे, अपनी ही थी गलती बाबू ।।

चाँद-चाँदनी, सागर-पर्वत, चाहत कहाँ किसानों की है ?
मुमकिन हो तो इनके हिस्से लिख दो थोड़ी बदली बाबू ।।

खाली थाली, खाली तसला, टूटा छप्पर, चूल्हा गीला,
रोजी-रोटी बन्द पड़ी जब, क्या करना जन-धन की बाबू ।।

जो काशी बन जाए क्योटो, या दिल्ली हो जाए लंदन ।
प्यासा जन बस जल पा जाये, गाँव लगे शंघाई बाबू ।।

अच्छे-दिन, काले-धन की बातें, जुमलें हैं जुमलों की क्या ?
"बाग़ी" भी अब समझ रहा है लेते हो तुम फिरकी बाबू ।।

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Ram Awadh VIshwakarma on May 22, 2018 at 9:05pm

आदरणीय सत्ताधीशों द्वारा ठगी गई भोलीभाली जनता का दुख दर्द बयान करती हुई सार्थक ग़ज़ल कहने के लिये हार्दिक बधाई।

Comment by Nand Kumar Sanmukhani on May 22, 2018 at 8:26pm
पांच बरस के बाद भी बेचारी जनता कहां कुछ बोल-समझ पाती है। कुर्सी के खिलाड़ी ऐसे-ऐसे स्वांग रचते हैं, ऐसे-ऐसे खेल तमाशे दिखाकर मतिभ्रम का वातावरण पैदा कर देते हैं कि कोई कुशल से कुशल अभिनेता भी क्या दिखा पाएगा। बेचारी भोली-भाली जनता इनके मदारीनुमा करतबों से प्रभावित होकर फिर से पांच साल के लिए अपनी बागडोर इनके हाथों सौंप देती है और ये फिर पांच सालों तक अपनी मनमानी (वस्तुतः तानाशाही ) करने के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं।एक बार फिर 'असली सेवक' मालिकों सा बर्ताव करने लगते हैं और 'असली मालिक' लाचार होकर उनकी मनमानियां सहते हुए ये सोचते रहते हैं कि जब हमारी बारी आएगी तब उन्हें बताएंगे । फिर वही चक्र चलता है। इस तरह हर बार 'प्रजातंत्र' एक तरह से 'ढकोसलातंत्र' बन कर रह जाता है।
आपकी ग़ज़ल का हर शइर ऐसी कई विडंबनाभरी स्थितियों की यरफ इंगित करता लगता है।
इस सुंदर, विचारोत्तेजक रचना के लिए बधाई स्वीकारें...
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 22, 2018 at 8:04pm

आ. बाग़ी जी,
ग़ज़ल के लिए बधाई... जिसके लिए कही है वो भी हम-काफिया है ;)))))) ....................दी बाबू 
बधाई 

Comment by Mohammed Arif on May 22, 2018 at 6:47pm
आदरणीय गणेश जी आदाब,
नवोदित सत्ता से काफी उम्मीदें थी मगर यह भी झूठी साबित होती नज़र आ रही है । महंगाई रोकने में बिल्कुल नाकारा सिद्ध हो गई है । हरदिन नया विज़न लाती है और मीठे-मीठे स्वप्न दिखलाती है । सत्ता के प्रति गहरी टीस पूरी ग़ज़ल में देखी जा सकती है । कुछ वर्तनी गलत/ग़लत, रोजी/रोज़ी देखिएगा । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 22, 2018 at 6:10pm

मेरी ग़ज़ल पर कई बार एसी प्रतिक्रिया आई तो मैं समझी ये नियम ही होगा .खैर नवलेखकों को समझने में आसानी होगी इस दृष्टि से ये बात सही भी है मैं तो आपकी बह्र समझ गई किन्तु जो सीखने की कतार में हैं उनके लिए थोड़ा मुश्किल होगा .एक अच्छी ग़ज़ल के लिए पुनः बधाई आदरणीय .


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 22, 2018 at 5:59pm

ग़ज़ल की सराहना हेतु आभार आदरणीया राजेश कुमारी जी, मेरी पिछली ग़ज़ल पर अरकान लिखने के बाबत बहुत बात हुई, मुझे समझ नही आता कि यह नियम कहाँ लिखा है, जो नियम है सभी "नियम" टैब के अंतर्गत लिखित है ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 22, 2018 at 5:44pm

आज की सियासत पर जबरदस्त प्रहार किया है आद गणेश जी बहुत खूब .बधाई आपको 

आपने नियम के अनुसार ग़ज़ल के अरकान नहीं लिखे आदरणीय 

कृपया ध्यान दे...

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