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ग़ज़ल

121 22 121 22 121 22 121 22

न वक्त का कुछ पता ठिकाना
न रात मेरी गुज़र रही है ।
अजीब मंजर है बेखुदी का ,
अजीब मेरी सहर रही है ।।

ग़ज़ल के मिसरों में गुनगुना के ,
जो दर्द लब से बयां हुआ था ।
हवा चली जो खिलाफ मेरे ,
जुबाँ वो खुद से मुकर रही है ।।

है जख़्म अबतक हरा हरा ये ,
तेरी नज़र का सलाम क्या लूँ ।
तेरी अदा हो तुझे मुबारक ,
नज़र से मेरे उतर रही है ।।

मिरे सुकूँ को तबाह करके ,
गुरूर इतना तुझे हुआ क्यूँ ।
तुझे पता है तेरी हिमाकत ,
सवाल बनकर अखर रही है ।।

न वस्ल को तुम भुला सकी हो,
न हिज्र को मैं भुला ही पाया ।
यहाँ रकीबों की वादियों में ,
तेरी ही खुशबू बिखर रही है ।।

हमारे दिल में हमी से पर्दा ,
गुनाह कुछ तो छुपा गई हो ।
है दिल का कोई नया मसीहा ,
तू जिसके दम पे निखर रही है ।।

किसी तबस्सुम की दास्ताँ पे ,
फ़ना हुआ है गुमान जिसका ।
है कत्ल खाने में जश्न इसका,
कज़ा की महफ़िल गुजर रही है ।।

हुजूर चिलमन से देखते हैं ,
गजब का मौसम है कातिलाना ।
ये इश्क भी क्या अजब का फन है
नज़र नज़र पे ठहर रही है ।।

तमाम रातो के सिलसिलों में ,
खतों से अक्सर पयाम आया ।
जो चोट मुझको मिली थी तुझसे
वो फ़िक्र बनकर उभर रही है ।।

----- नवीन मणि त्रिपाठी

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on May 13, 2018 at 9:30pm

जनाव नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

5वें और छटे शैर में शुतरगुर्बा का दोष है,देखें ।

17 मई से ओबीओ से एक महीने का अवकाश ले रहा हूँ,रमज़ान का पवित्र महीना शुरू हो रहा है ।

Comment by Harash Mahajan on May 13, 2018 at 5:02pm

एक सुंदर पेशकश आदरणीय मणि जी । हरदिल बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Naveen Mani Tripathi on May 12, 2018 at 11:28am

आ0 श्याम नारायण वर्मा जी सप्रेम आभार

Comment by Shyam Narain Verma on May 11, 2018 at 2:49pm
वाह बेहद खूबसूरत प्रस्तुति … हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय।

कृपया ध्यान दे...

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